भागो नहीं दुनिया को बदलो | Bhago Nahin Duniya Ko Badalo

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Bhago Nahin Duniya Ko Badalo by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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म [ भागो नहीं वदलो भीतर सीड़ बाहर नाबदान और कूड़े-करकटकी बदबू !' यह क्या आदमियोंके रहने लायक घर है ? इन्ही सड़ी भोपड़ियोम बच्चे पेदा होते हैं। जन्न वह आँख खोलते है, तो उनके आस-पास क्या दिखलाई पड़ता है ? गरीबीका नगा नाच, तिलमिलाती अ्रतड़ियाँ, सूखा मुंह नगा बदन ! दुखराम--आजकल लड़ाई के जमाने में दस-दस रुपयेकी साड़ी कोन खरीदेगा ? फठा चीथड़ा भी तो नसीत्र नहीं होता है। जान पडता है ठाट भी पहिननेको नदीं मिलेगा | भैया--हाँ और बच्चा नङ्गा-मूखा- सरीर श्रौर वही गरीब्री चारो ओर देखता है । सूखे थनोसे दूध निकालना चाहता है । इसपर भी यदि हमारे देसके श्रापे बच्चे बचपन हीमं न मर जायें तो बड़े अचरजकी बात है लेखक । दुखराम - हां । भैया, सतमीके भच्चोको नहीं देखा ? दो तीन बरसोके भीतर उसका लडकोंसे भरा घर खाली हो गया । सनन्‍्तोखी--मै समभता हूँ, ऋच्चोके लिए. अच्छाही हुआ ! पेट भर खाना किसे कहते हैं, क्या इसे उन्होंने कभी जाना ? जाड़ेमें बेचारे यदि किसीके कोल्हुआड़े में आग तापने जाते, 'ऊख चुराकर ले जायगा कह कर दुतकार दिये जाते । मानों वह आदमी नहीं कुत्ते थे। कोदोका पुआल या ऊखकी पत्तियोंमें घुस कर रात ब्रिता देते। भूख लगती तो किसीके द्वार पर खड़े होते। दया आई, तो किसीने एक कौर दे दिया, नहीं तो फिर फटकार | जड़ेया, ( मलेरिया ) में सब्च गिर जाते, तिल्‍ली बढ़ती, पेट फूल कर कुंडा जैसा हो जाता मुंह पीला और आँखें फूल जाती। फिर एक-एक करके पके पत्तेकी तरह भडने लगते ! क्या यह श्रादमीका जीवन है ! मैया -श्रव समा न, यष्टी नरकका जीवन है । शायद तुम समभते होगे कि सहरके साफ़ कुर्ता-धोती पहिननेवाले बाबू लोग अच्छी जिन्दगी निताते होगे ए दुखराम--हाँ, भेया ! हम तो ऐसाही समभते हैं---वह तो पान भी खाते हे, सिनेमा भी देखते हैं, हम लोगोंको देख कर गन्दा-गँवार कह कर हट जाते हैं ।




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