मराठे और अंग्रेज़ | Marathe Aur Angrej

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Marathe Aur Angrej by नरसिंह चिन्तामणि केलकर - Narasingh Chintamani Kelakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) करते समय सिंधिया को इस फौज से बहूत कम लाभ मिला । युद्ध के समय दौलतराव सिधिया कहते थे कि हम अपनी सेना द्वारा युद्ध करेंगे और रघूजी भोंसले का कहना थः कि मेरे पाष सेना नहीं हे ग्रतः मे तो छिपकर युद्ध (गुरित्ला-लडाई) लडना चाहता हैं । दौलतराव सिंधिया को सवार सेना भी यही इच्छा रखती थी । इस तरह श्रापसी भेद” भाव के कारण कहा-सुनी ही होती रही और युद्ध को व्यवस्था कुछ न हो सकी । फल यह हुआ कि भोंसले का छिपकर लड़ना जेसा का तंसा रखा रह गया, दौलतराव सिधिया की सवार सेना ठंडी पड़ गयी और अंग्रेजों की सब मार नई पेदल सेना पर आ्र। पड़ी । इसके अतिरिक्त कुछ सरदार भी ठीक उसी मौके पर अ्रंग्रजों से मिल गये और इस प्रकार यद्ध की व्यवस्था को नष्ट हो जाना पड़ा । इस समय जो भी रही-सही पलटने थी, वे भी इसी काररण से एक जगह पर एकत्रित न हो सकीं । जो कुछ थोड़ी सेना थी उसके साथ असाई, अलोगढ़, लःसबारो, प्रभृति स्थानों पर अंग्रेजों से यद्ध हुए जिसका नतीजा पराभव के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता था ? जब अंग्रेजों से लड़ने का समय सिधिया और भोंसले का आया, तब उन्होंने होलकर क भी अपने में शामिल करने के बहुत प्रयत्न किये; परन्तु उस समय होलकर उनसे नहीं मिले और दूर से युद्ध का तमाशा देखते रहे | इस यद्ध के बाद जब होलकर और श्रंग्रजों में यद्ध हुआ तब होलकर श्रकेला पड़ गया । ग्रतः बहु संकट में पड़ गया । उस सम्रय होलकर ने मराठा राज्य के सम्पूर्ण सरदारों को सहायता-पत्र भेजा । परशुराम पत प्रतिनिधि को जो पत्र भेजा था उसका, आराहफ.. इस प्रकार है । “ग्राजतक सिलकर सब लोगों ने एक दिल से हिन्दू-राज्य चलाया; परन्तु कुछ समय से सबके राज्यों में गरह-कलह होने से राज्य अ्लग-श्रल्ग होते जा रह हैं । इसे नष्ट करने के लिये सबको एक-दिल होकर मिलना उचित है | तभी यह बुराई नष्ट होगी और पहले के अनुसार धम,चार और हिन्दूपन स्थिर रह सकेगा । हमने जो मागं ग्रहण किया है उसे श्राजन्म चलाने का निश्वय है। श्रब परमेश्वर इसके शअ्रनु एल होकर जो करं सो ठीक है । परन्तु यह काम केवल एक करे और बाकी बंठे तमादा देखें श्र भ्रपना राज्य संभाले, तो इसका परिणाम क्या होगा ? इस पर श्राप मन में विचार करं श्रोर जिससे हिन्दू धर्म की स्थिरता और परिणाममें लाभहो वहं करे । इसका विचार यदि आप-जेसे नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?” कहने को श्रावहयकता नहीं कि इस पत्र में प्रकट हुए विचार उचित हैं; पर यही विचार एक वर्ष पहले होलकर के मन में उठे होते श्रौर उसने सिधिया श्रौर भोंसले को सहायता दी होती तो श्राज यह नौबत न पेदा होती ।




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