दिवाकर दिव्य ज्योति [भाग-13] | Diwakar Divya Jyoti [Bhag-13]
श्रेणी : शिक्षा / Education
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
318
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पुष्यपथ और पापपथ | [ १३
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भाइयो 'अभिप्राय यह है कि आपको जो भी स्ामग्रो प्राप्त
हुई है, चाहे वह घन वैभव हो, चाहे मन वचन श्र काया हो,
चाहे जोबनोपदोगी अन्य वस्तुए हो, श्रापका कर्तव्य है कि आप
पुण्य के लिए उनका सद्व्यय करें, पुण्योदय से मिली सामग्री को
यदि नृतन पृण्य के उपारज॑न करने से व्यय व किय। तो वह उस वस्तु
का सदव्यय नही कहलाएगा । श्रतएव श्रपने कल्ण्णण की हृष्ठि से
प्रापका यहो कर्तव्य है कि ग्राप दीन-दुखी जीवो की सहायता करे,
उनके अ्रमावो की यथायोग्य पूत्ति कर॑ उनके दु'ख को दूर करे
उन्हे सुख-साता पहुचाने का प्रयत्त करे । जो भूख से तडफ रह दै
उसे भोजन दे दोगे तो निश्चय समझो कि इसमे श्रापको कुछ भी
हानि नही होगी, बल्कि लाभ ही लाभ होगा । कदाचित दान देनें
से श्राप को किसी प्रकार की कठिनाई का साधना करना पड़ता
हो तो भी मैं यही कहूगा कि श्राप उस कठिनाई को सहन करके
भी दान दीजिए | दान के प्रभाव से मापकी कठिनाइया उती
प्रकार विलीन हो जाएगी जिस प्रकार प्रबल आ्राँधी के वेग से मेघ'
को घटाए छिन्न भिन्न हो जती है। य्यद रखिए, दान महान् फल-
दायी होता है। कहा है--
सुपात्रदानाच्च इवेद् धनाटयो,
धनप्रमवेण करोति पण्यम् |
पुण्यप्रसावात् सुरलोकयासी,
पुनधनाटयः पुनर भोभी ॥
भ्र्थात्ू--सत्पात्र को दान देने से मनुष्य धन सम्पन्न बनता
हे, घन के प्रभाव से पुण्य/जंत करता है उत् पुण्य के प्रभाव से
देदलोक की प्राप्ति होती है । देवलाकवासी जब यहा श्रात्ता है तो
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