गुप्त जी की काव्य-साधना | Gupt Ji Ki Kavy Sadhana
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
296
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)११
हैं। हमारे विचार में संचारी भाव के नाम से ग्राख्यात इन मिश्र और श्रमिश्र मनोविकारों
के सीमा-निर्धारण का प्रयत्न ही व्यर्थ है। लेकिन शास्त्र में उनकी गणना हुई है--संचारियों
की संख्या ३३ मानी गई है। जैसा कि हम ऊपर निवेदन कर चुके हैं यह ठीक नहीं है । इन
तेतीस मे भी मरण, भालस्य, श्रपस्मार, निद्रा श्रादि शारीरिकता-प्रधान संचारियों को मनो-
विकार कहना भ्रसंगत होगा । इस प्रकार उनकी संख्या श्रौरमभी कमहो जाती है । इसके
म्रतिरिक्त श्रादर, श्रद्धा, दया, उदासीनता प्रादि कुच जाने-बूफे मनोविकार छूट भी जाते
ह-- गिनती मे श्राते ही नहीं। परम्परा-टढ विद्वान् प° विश्वनाथप्रसाद मिश्र व्यभिचारी-
परिगरन का कारण “शास्त्रचर्चा की सुविधा मानतेर्है--
प কিন संचारियों के सम्बन्ध में दो बातें श्रौर हैं। ये स्थायी भावों की तरह
परिमित नहीं होते । ये बहुत से हो सकते हैं । किन्तु काव्य में शास्त्रचर्चा की सुविधा के लिए
प्रमुख तेतीस ही संचारी कहे गए हैं। ३३ की संख्या निश्चित हो जाने से कभी लोगों को
भ्रम हो जाया करता है। ज॑ंसे हिन्दी में कुछ लोगों को यह भ्रम हुआ कि कवि देव ने
'भावविलास'” में 'छल' नामक चौंतीसवाँ संचारी लिखकर रस के क्षेत्र में बहुत बड़ा श्रन्वेषण
किया । पर बात ऐसी नहीं है । छल ही क्या दया, दाक्षिण्य, उदासीनता झ्ादि न जाने कितने
भाव हैं जिनकी गणना तेतीस संचारियों में नहीं है ।
उपयुक्त उद्धरण में आप देख रहे हैं कि मिश्र जी स्वयं मानते हैं कि संचारी स्थायी
भावों के समान परिमित नहीं होते'-- वि बहुत से हो सकते हैं । दया, दाक्षिण्य, उदासीनता
ग्रादि की गणना संचारियों में न होने के तथ्य की ओर भी उनका ध्यान गया है। फिर भी
पता नहीं संख्या “३३० में उन्हें शास्त्रचर्चा की कौन-सी सुविधा दृष्टिगत होती है। क्या इससे
अधिक संख्या में सुविधा कम हो जाती ? मैं समभता हूँ कि संख्या का प्रतिबन्ध हटा देने से
सुविधा श्रौर भी बढ़ जाती । फिर यदि मिश्र जी का कहना ठीक भी मान लें तो क्या शास्त्र
में सुविधा के लिए अ्तथ्य-कथन भी हुझ्ना करेगा ? |
हमारी विनम्र सम्मति में संचारी भावों के श्रध्याय मे काफी संशोधन-परिशोधन
की श्रावद्यकता है ।--झौर उनके संख्या-निर्धारण का निष्फल प्रयत्न तो सव्वथा त्याज्य
ही है।
गुप्त जो द्वारा सभो भावों (रसों) का ग्रहरण
भ्रालोच्य कवि श्रत्यन्त व्यापक दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति है। जीवन में जितनी भिन्न-
विभिन्न स्थितियां श्रौर परिस्थितियां संभव हैं उनमें से श्रधिकांश को उसने अपने काव्य का
विषय बनाया है। भ्राचायं शुक्ल ने एक स्थान पर कहा है--“पूर्ण भावुक वे ही हैं जो
जीवन की प्रत्येक स्थिति के ममंस्पर्शी भ्रंश का साक्षात्कार कर सर्क और उसे श्रोता था
पाठक के सम्मुख भ्रपनी शब्दशक्ति द्वारा प्रत्यक्ष कर सकें ।/*९ इस दृष्टि से हमारा कवि पूर्ण
१. वाक्मय-विमहं, तृतीय संस्करण, पष्ठ १२७
२. गोस्वामी तुलसीदास, संस्करण संबत् २००३, एष्ठ ७३
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