मइकलेहा चरिउ | Maikaleha Chariu
श्रेणी : राजनीति / Politics
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
321
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)और इस प्रकार के सभी तर्कों से वह एक ही निष्कर्ष निकालता है कि पुराण असत्य है।*
श्रुतकीर्ति की दो अपभ्रंश रचनाएं कडवकबड् प्राप्त हुई हैं। साठ सन्धियों की परमेष्ठी प्रकाश सार
और चवालिस सन्धियों का हरिवंशपुराण। प्रथम ग्रन्थ की रचना कवि ने विक्रम संवत् १५५३ में मालवा
में स्थित उवचल ग्राम में की थी। दूसरी कृति की रचना गंगा यमुना कौ अन्तर्वेदी मेँ स्थित अभयपुर नगर
के काष्ठासंघ के चेैत्यगृह में की। कवि की एक अन्य कृति ' धम्मपरिक्खा' का भी उल्लेख प्राप्त होता
है ।*
इस प्रकार अपभ्रंश मे अनेक साहित्यिक तथा दार्शनिक रचनाएं लिखी गई, जिनका किंचितूमात्र
वर्णन यहाँ प्रस्तुत किया गया हे । मृगांकलेखा चरित इस परम्परा की अन्तिम कृति मानी जाती है । जिसका
परिचय अगे प्रस्तुत है ।
मड कलेद्ा चरिउ ५ एक समीक्षात्मक अध्ययन
मइंकलेहा चरिउ का परिचय-- भगवतीदास ( भगौतीदास ) का मइंकलेहा चरिउ (या चन्द्रलेखा)
सबसे अन्तिम अपभ्रंश कृति मानी जाती है। इसका रचना काल विक्रम संवत् १७०० है। कृति में
कडवकबडद्ध शैली का पालन तो किया गया है, किन्तु समयानुकूल प्रभाव के अनुकूल दोहों के प्रयोग भी
मिलते हैं तथा बीच-बीच में तत्कालीन काव्यभाषा का भी व्यवहार मिलता है। भगवतीदास देहली के
भट्टारक गुणचनद्र के प्रशिष्य तथा भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य थे। इन्होंने हिन्दी में अनेक ग्रन्थों की
रचना की है 1२ महंकलेहा चरिंड की विक्रम संवत् १७०० की हस्तलिखित प्रति आमेर शास्त्रभण्डार में
विद्यमान है। भगवतीदास अग्रवाल जैन थे।*
मंइकलेहा चरिउठ का आरम्भ इस प्रकार किया गया है--
ॐ नमः सिद्धेभ्यः । श्रीमद् भट्टारक श्री माहेंद्सेण गुरवे नम: ।
पणविवि जिणवीर णाणगहीरं, तिहुवणवड रिसि राइ जई ।
णिरुवम विस अच्छं सील पसच्छं, भणमि का ससिलेह सई ॥
भगवती दास का जन्म अम्बाला जिले के बूढ़िया ग्राम में हुआ था। उनकी ' मुगती रमणी चूनडी'
की रचना विक्रम संवत् १६८० में हुई थी। कवि के पिता का नाम किसनदास था। इनका गोत्र बंसल था।
१. रामसिंह तोमर : प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य और हिन्दी पर उनका प्रभाव पृ, १२१-१२२।
२. वही पृ. १६६।
३. रामसिंह तोमर : प्राकृत ओर अपभ्रंश साहित्य ओर हिन्दी साहित्य पर उनका प्रभाव । पु. १६६-१६७।
४. प्रो. हरिवंश कोछड़ : अपभ्रंश साहित्य, पृ. २४४।
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