गुरुकुल - पत्रिका | Gurukul Patrika

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Gurukul Patrika by निगम शर्मा - Nigam Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मुरुकुल-पत्रिका, १६८२ एक भी श्रक्षर का प्रयोग हुआ है यह मानने का श्रौचित्य प्रतोत नहों होता फिर विपात तो भाषा का महत्त्वपूर्ण श्रंग है। अतः मन्त्रों मे प्रयुक्त कोई भी निपात अनर्थंक, निरर्थक अ्रथवा मात्र पदप्रण नहीं हो सकता । वह श्रवस्य हो तत्तत्‌ स्थल पर किसी न किसी भ्रर्थ को लक्ष्य करके प्रयुक्त किया गया है । ऋग्वेद को इतनी सुसमृद्धि भाषा शेली और उच्च भाव युक्त कल्पना को देखकर यह मानना तकं संगत प्रतोत नहीं होता कि--कान्त- दर्शो ऋषियों के शब्दकोश मे गरि था जिस कारण उन्होने मन्तो मे मात्र ्रक्षरपूति के लिएु निरर्थक पदों का प्रयोग किया । श्रपितु मन्त्रों मं प्रत्येक पद साभिप्राय हौ प्रयकः किया गया होगा । यदि हम उस भिप्राय को नहीं जान सके हुँ तो यह ऋषि अथवा मन्त्र का दोष नहीं कहा जा सकता, उसके वास्तविक श्रथं क। कानने ॐ लिए उचित प्रयास किया जाना ऋषिए. तभी मन्त्र को ग्रात्मा तक पहुंचना सम्भव है ! ऋग्वेद के भाष्यकारों को अभिज्र' अथवा जहुल कहा जा सकता है किन्तु सर्वज्ञ तो थे भी नहीं थे | सम्भव है तात्कालिक परिस्थिति से उनकी भी कुछ सोमाएं रहो हों । श्रषने-प्रपने बुद्धि विवेक के अनुसार उन्होंने मन्‍्त्रों की व्याख्याये की हें किन्तु श्रन्तिमता का दावा तो न किसी ने किया है ग्रौरन हौ यम्भाव है । प्रतः निपातो को मात्र पदपूरणः कहकर उनके ग्रथ की उपक्षा करना उचित नहीं है । मेरे इस अभिपष्राय को पुष्टि १७. स्फ्टत्वोद्ग्रहणादिश्च क्वचित्‌ सुक्ष्म: क्वचित्‌ स्फुटः । मत्र स्फुटस्तदा सार्थाः सूक्ष्मे स्युः १५ माधवभट्ट केकथ्य से भी होती है क्योकि वे ऋर्वेद(- नुक्रमणी मे पदपूरण मे भो किसी सृकम प्रथं की उपस्थिति स्वीकार करते ह! । निपातो को श्रनथंक कहने का कारण सम्मवतः यह्‌ प्रतीत होता है कि कत्तिपय निपाते कृष्ट स्थलों पर किसौ विशिष्ट ग्रथंकोस्पष्ट स्पसे प्रकट करते प्रतीत नहीं होते किन्तु यदि उन स्थलों का सुक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया जाए तो वे हो निपार पूर्णतया साथंक प्रतोत होते हु । ऋग्वेद विश्व- साहित्य का ग्रादि ग्रन्थ है हो भावों तथा भाषा की दृष्टि से भी सुसम्णन्न है, इस तथ्य को प्र'यः सभी विद्वान स्वीकार करते हु । पुनरषि उसो ऋष्वेद के मन्त्रो मे प्रयुक्त निपातो को मात्रे 'पदधुरण' कहकर उनको उपक्षा करता युव्तियकत प्रतोत्त नहीं होता क्योंकि ऐसी स्थिति में जबकि मत्रों के पदों का व्यतिक्रम भो स्वीकार न किया जा सके, एक हो मन्त मे प्रयुक्त चार पांच अथव्य इससे $ धिक निवात अनर्थक या मात्र पद पूति के लिए प्रयब्त हों, यह बात युक्तियुक्त प्रतीत नहों होती । वस्तुत. वेदमन््ो की व्यास्या का क्षेत्र विशाल है । वंदिक पदों को व्याख्या अनेक प्रकर से उपलब्ध होती है । विभिन्न व्याख्याकार एकं ही पद को दिविध प्रकार से व्याख्या करते हु । एक भाष्यकार एकं स्थल पर किसो निपात को व्यास्या में उसे ग्रन्थक श्रथवा पदपूरण मानता है तो वही भाष्यकार अन्य स्थलों पर उसीको साथंक १८. हि प्रण: ऋग्वेद साथण भाष्य ४1३३।६ । / हिष्मे चित त्रयः पूरणा: सा . भा, 3३११० । शरणा इति ।॥। ऋग्वेदानुक्रमणो-माधवभटट १९. हिरवधारणे ऋ,सा.भा. १॥१०४।१८ । ३।१।१८ । हि शब्दश्चार्थे ऋ.सा.भा. ६।४८।१७।




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