हस्तलिखित हिंदी ग्रंथों का सोलहवाँ त्रैवार्षिकविवरण | Hastlikhit Hindi Granthon Ka Solahwa Traivarshik Vivran

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Hastlikhit Hindi Granthon Ka Solahwa Traivarshik Vivran by पीतांबरदत्त बड़थ्वाल - Pitambardutt Barthwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क. - ( < ) सुरति खुब अजःयब मूरति आलप के महबूब बिहारी । जगमग जग ই जमारू जगत मे हिरुमिरु दिर की जय बलिहारी सत सुनाम अस बहुत बंदगी जो इसको नीके कर जाने । ञ्यो ऽयो याद्‌ करे वह बदा स्यौ त्यों बह नीके कर जाने ॥ देषो कर्म कियो बामन ने जो कछु दिया सो मनमें জান। ऐसे कौन बिना गिरिधारी जो गरीब के दुष को भाने ॥ ১৫ > ॐ ৮ केते रतन पारखी परखे जेवर कितिक सुनार गढ़त हैं। केते बाजीगर और नचुआ केते नचुआ नाच करत हैं ॥ केते बाजार चहँ खंड दीसे केतिक अखारन मब्ल लरत हैं। केते जमींदार हैं ठाढ़े अपनी अपनी अरज करत हैं॥ हक दाहा गदागीर रषम सुखन सुदामा, श्रीकृष्णचन्द्र को मार (वार) । = आर्म में प्रगरत भए सब राजन सिरदार ॥ सरोज और सुदामा चरित्र दोनों ही की रचना में विदेशी शब्दों का प्रायः एक सा व्यवहार है। आलम की भ्रज्त्ति अपनी छाप को बहुधा हिलष्ट पद के रूप में रखने की है | दोनों स्थानों की कविता समान है । इन दोनों उदाहरणों में जो थोड़ा सा अन्तर दिखाई देता है उसका कारण छन्द की एवं भाषा की विभिन्नता है। सरोज के उदाहरण का झुकाव ब्रजभाषा की ओर और सुदासाचरित्र के छन्‍्दों का खड़ी बोली की ओर है, परन्तु सुदामा चरित्र में भी आगे चछकर बजभाषा का पुट आ गया है जैसा दोहे के उपरवारे छन्द से प्रकट है । इस आलम का समय १६९६ ई० के लगभग माना गया है। प्रस्तुत ग्रंथ का रचनाकार अज्ञात है । लिपिकारू सन्‌ $৫৭ ই है। ८ गंगाबाई या विद्रु गिरिधरन रचित पदों के एक संग्रह के विचरण इस च्रिवर्षी में पहली ही बार लिए गए हैं। रचना-कारू इस संग्रह में नहीं दिया गया हे, किन्तु लिपिकारू १७९३ ई० है | गंगाबाई का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था । ये महावन में रहती थीं। सुप्रसिद्ध वेष्णवाचार्य गुसाईं विहुलनाथजी इनके युरु थे । वैष्णवों की वार्ताओं में इनका नाम आया हे । इनकी कविता सजीव ओर मम॑स्पर्चिनी है | पदों के संग्रहो देसे बहुत से पद्‌ मिलते हैं जिनमें दो नामों--बिहल और बिहक गिरिधरन--की छाप पाई जाती है। ये दोनों प्रथक्‌-प्थक्‌ कवि हैं | जिन गातों में बिहल गिरिधरन की छाप है वे सभी गंगाबाई के रचे हुए हैं । द ..... इनका रचनाकार, स्वामी बिहलनाथ की शिष्या होने के कारण, सं० १६०७ নিও ( १००० ईं० ) के रूगभग होना निरिचत है; क्योकि स्वामी जी इस समय वतमान ये ( दे° खोज विवरण १९०५ ई° संख्या ६१; सनू १९०६-०८ ई ० संख्या २०० ओर सन्‌ १९०९-११ ई° संख्या ३२ ) ।




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