जिनवाणी, अहिंसा विशेषांक - अंक 3, 4, 5, 6 | Jinvani, Ahinsa Visheshank Ank-3,4,5,6,
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
424
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
नरेन्द्र भानावत - Narendra Bhanawat
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शांता भानावत - Shanta Bhanawat
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्रहिसा का. आलोक .. ....
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त, . ¡` ` 0 स्वर्गीय आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
क ৯ क ४ শী अ,
अनन्तकाल से संसार -का प्राणी कर्मपाश में बंधा हुआ है। जिससे वह
अपने ज्ञानादि गुणों का पूर्ण प्रकाश नहीं फैला सकता । कर्म बन्ध की श्रनादिता
से प्रश्त-होता है कि जब क़र्म॑ अ्रनादि हैं तो फिर मनुष्य.की मुक्ति कैसे हो ? `
- यहाँ समभने की बात है कि सम्बन्ध दो प्रकार: के होते हैं--एक सैंयोग
सम्बन्ध और दूसरा समवाय सम्बन्ध । एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ सम्बन्ध
ग्थवा आत्मा का कमे के साथ सम्बन्ध, यह सयोग सम्बन्ध है और आत्मा का
ज्ञान आदि निज गुण के साथ सम्बन्ध समवाय है, इसमें से पहले का सम्बन्ध
ग्रनादि होकर भी.सान्त है, जबकि दूसरे का भ्रनादि ्रनन्त.सम्बन्ध है, न उसका
संयोग है और न वियोग । । 4. সি
४. किसी को यदि योग्य निमित्त 'मिल. जाय और उसमें उचित पुरुषार्थ हो
तो आत्मा के साथ जो कर्म का सम्बन्ध है; उसका वियोग भी कर सकता है ।
जैसे सुवर्ण और धूलि का सम्बन्ध अनादि से होने पर भी रासायनिक प्रयोग से
सोना शुद्ध होता है। मिट्टी में मिला; हुआ भी जल,शुद्ध किया जाता है वैसे ही
आगन्तुक कारणों को रोक 'कर कर्म का भी अच्त किया जाता है ।'कर्म भी
प्रवाह की अपेक्षा अनादि और स्थिति की अपेक्षा सादि. है | जैसे छने जल के
पात्र को ढक दिया जाय तो नया मेल नहीं आता फिर वाष्प नलिका में फिल्टर
कर उसे पूर्ण शुद्ध कर लिया जाता है। ऐसे ही ब्रतों के द्वारा पापों का श्रागमन
रोक कर तप एवं ध्यान से कमे-मल का सवेथा अन्त भी कर लिया जाता है ।
' कर्म के श्रणू संसार में चारों ओर भरे पड़े है, जब आत्मा उन्हें ग्रहण
करती है तो वे उस-उस परिणति के अनुकूल फल देते है, जैसे भावावेश में आ्राकर
कोई भंग पी लेता है तो,उसके -दिल-दिमाग सब मस्ती से आवृत्त होकर कुछ
और ही रूप हो जाते हैं-। धीरे-धीरे उपचारों से वह प्रभाव, मिटकर मन स्वरथ
होता है। जैसे भंग के परमाणु स्वयं के द्वारा ग्रहण करने.पर ही दु.ख देते है,
वेसे कर्म परमाणु भी अपने द्वारा-प्रहण विये जाने पर ही दु खदायी होते है ।
कर्म बच्ध से बचने का उपाय साधना है जो.दो प्रकार की है, एक साधु
मार्ग की साधना और दूसरी गृहस्थ धर्म साधना । दोनों में अ्रहिसा, सत्य, अ्चौय॑,
ब्रह्मचर्य और अपरियग्रह रूप पाँच ब्रतों के पालने की व्यवस्था की गई है। साधु-
मार्ग की साधना महा कठोर और पूर्ण त्याग की है किन्तु गृहस्थ की धमं साधना
सरल है । गृहस्थ.क त्रत मेँ मर्यादा होती है । श्रानन्द की साधना भी देश साधना
* आचार्यश्री क आचायं श्री के प्रवचनस्े सम्पादिता 7777 प्रवचन से सम्पादित । ह
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