पउमचरिउ | Paumchhriu

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Paumchhriu  by देवेन्द्र कुमार जैन - Devendra Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तियारीसमो संधि ५ उसने शम्बूकङ्कमारका सिर काट डाखा है ओर बलपूवेक उसने देबोंसे सूयहास खड॒ग छीन छिया है । उसीने चन्द्रनखाका यौवन कलंकित किया | जिससे रोती-विसूरती हुई बह, जय छच्ष्मीसे विभूषित खर और दृषणके पास आई। तब उन दोनोंने आकर छ्मणसे युद्ध ठाना । परन्तु उसने तत्काख इनके दो टुकड़े कर दिये । इतनेमे अमषसे भरकर किसीने रामकी पत्नी सीता देवीका अपहरण कर लिया । पक्षिराज जटायुने पीदा किया । परन्तु उसे भी मार डाछा । युद्धका कारण यही हे” ॥१-६॥ [ ३ ] युद्धकी हालत सुनकर सुप्रीथ इस चिन्तामें पड़ गया किं क्या वह्‌ उनकी ( राम-छक्ष्मणकी ) शरणमें चछा जाय | हाय विधाता तूने केवल मुझे मौत नहीं दी ? इस अवसर पर मैं किसे स्मरण करूँ | क्या हनुमानकी शरणमें जाऊँ। परन्तु वह भी शत्रुको नहीं जीत सकता । उल्टा मैं निरख कर दिया जाऊँगा | क्या रावणसे जभ्यथना करं । नहीं नहीं । बह मनका छोभी ओर खीका कपट है । वह हम दोनों (असो ओर नकली ) को मारकर राज्यसहित स्रीको भी ग्रहण कर लेगा । अतः खर-दूषणका मान सदन करनेवाले राम और लक्ष्मणकी शरणमें जाना ही ठीक है । यह सब सोच-विचारकर किष्किन्धापुर नरेश सुमीवने मेघ- नाद दृतकों पुकारा, और यह कहा, “जाकर विराधितसे कहो कि सुप्रीव शरणमे आ गया है । इस प्रकार प्रिय बचनोंसे उसने दूतको विसर्जित किया । बह दूत भी मान और मत्सरसे रहित होकर गया | पाताल लंका नगरमें प्रवेशकर, उसने अभिवादनके साथ, विराधितसे पूछा, सुताशको लेकर मायासुमीबसे पराजित असी सुग्रीव आपकी शरणमे आया है । उसे प्रवेश दूँ या नहीं? ॥१-१२॥




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