सांस्कृतिक निबंध | Sanskritik Nibandh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
208
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ऋग्वेदके रोसेण्टिफक ऋषि १३
उसकी कत्रिप्रतिमाहीन दिष्टता देखी । रानीको वह अभवि खला । कौत
उसकी कन्याकी बहुमूल्य आवश्यकताएँ पूरी करेंगा ? कौन उसके मर्मसे
उठती साधोंकी सार्थक करेगा ? कौन उराके कवि-हृदयकी ক্যা অমৃত
भावनां साकार करेगा ? रानीका भय सार्थक था।
आइचर्य और अभाग्य कि इ्यावाइवका पिता धनी न था क्योकि तब
का पुरोहित उस परम्परामें था जिसमें मिस्रके पिरामिडों और ऊरकी
क्ब्नोंके पुरोहित थे, धन-वैभव जिसका दास था, शक्ति जिसका वैतालिक ।
ऋषियों, विशेषकर, ऋषि-पुरोहितोंको जैसे दानमें मिली वधुओंकी कमी'
न थी, द्वार पर खड़े घोड़ों-रथोंकी भी कमी न थी, बखारमें भरे अन्नकी
भी सीमा न थी, घरमें सोनेकी चमकको' भी कमी ने थी। पर दुर्भाग्य
कि पिताके पास धन न था। दध्यावाइव उस कवि-परस्परामें भी जन्मा था
जिसके ऋषिने ज़षाके रलित गानकर काव्य-जगतुर्में अपना साका चलाया
था। पर अभाग्य क्रि स्वयं उसकी जिह्वासे भारती मुखरित न हुईं थी।
विवाह रुक गया, युगल प्रणयी विल्ग हौ गये 1
्यावाईव कवि न था, पर निःयन्देह कवचि-हूदय धा । জাতুত कवि-
परम्पराकी अव्यक्त दाय उसकी थी। और अब जो मर्मकों ठेंस छगी तो
राग-रस चू पड़ा। राजकन्याका मादक सौन्दर्य, उसका मदिर भाव-
विन्यास क्यावादवके केन-कनमे रम गया । उन्हें वह भुछा न सका। नीरव
एकान्त उसके प्रणयको द्वित मौर चारीनता देने रूगा, स्मृति শ্রীল
र्गी । प्रणयकी चेरना कष्टकी चेतना है, चोटकी अनुभूति । ऋषिपुत्र
विलख उटा । पह प्र णयकी परिणत्ति थी, नये रसका संचार, जो निर्णनतामें
उसका सहायक हुआ । स्यावादव गुनगुना पड़ा । हृदय उसका सुकुमार धा,
मानसा विमुग्ध, चित्त चिन्ताकुलं । श्यकतक्री आकृति और सीभा होती है,
अव्यक्त अप्राप्तकी न आति न सीमा । एकाकीका साधूर्यं गरिम प्रणयकी
अनन्तं अभियाम आकृतिं सिरजता जाता, स्वप्मकी सां अविकलं भार्व-
नाएँ जनती जातीं, रउप-आकर्षणकी कार्य कल्पना सस्मोहक चित्र मानस-पद
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