सांस्कृतिक निबंध | Sanskritik Nibandh

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Sanskritik Nibandh by भागीरथ कानोडिया - Bhagirath Kanodia

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऋग्वेदके रोसेण्टिफक ऋषि १३ उसकी कत्रिप्रतिमाहीन दिष्टता देखी । रानीको वह अभवि खला । कौत उसकी कन्याकी बहुमूल्य आवश्यकताएँ पूरी करेंगा ? कौन उसके मर्मसे उठती साधोंकी सार्थक करेगा ? कौन उराके कवि-हृदयकी ক্যা অমৃত भावनां साकार करेगा ? रानीका भय सार्थक था। आइचर्य और अभाग्य कि इ्यावाइवका पिता धनी न था क्योकि तब का पुरोहित उस परम्परामें था जिसमें मिस्रके पिरामिडों और ऊरकी क्ब्नोंके पुरोहित थे, धन-वैभव जिसका दास था, शक्ति जिसका वैतालिक । ऋषियों, विशेषकर, ऋषि-पुरोहितोंको जैसे दानमें मिली वधुओंकी कमी' न थी, द्वार पर खड़े घोड़ों-रथोंकी भी कमी न थी, बखारमें भरे अन्नकी भी सीमा न थी, घरमें सोनेकी चमकको' भी कमी ने थी। पर दुर्भाग्य कि पिताके पास धन न था। दध्यावाइव उस कवि-परस्परामें भी जन्मा था जिसके ऋषिने ज़षाके रलित गानकर काव्य-जगतुर्में अपना साका चलाया था। पर अभाग्य क्रि स्वयं उसकी जिह्वासे भारती मुखरित न हुईं थी। विवाह रुक गया, युगल प्रणयी विल्ग हौ गये 1 ्यावाईव कवि न था, पर निःयन्देह कवचि-हूदय धा । জাতুত कवि- परम्पराकी अव्यक्त दाय उसकी थी। और अब जो मर्मकों ठेंस छगी तो राग-रस चू पड़ा। राजकन्याका मादक सौन्दर्य, उसका मदिर भाव- विन्यास क्यावादवके केन-कनमे रम गया । उन्हें वह भुछा न सका। नीरव एकान्त उसके प्रणयको द्वित मौर चारीनता देने रूगा, स्मृति শ্রীল र्गी । प्रणयकी चेरना कष्टकी चेतना है, चोटकी अनुभूति । ऋषिपुत्र विलख उटा । पह प्र णयकी परिणत्ति थी, नये रसका संचार, जो निर्णनतामें उसका सहायक हुआ । स्यावादव गुनगुना पड़ा । हृदय उसका सुकुमार धा, मानसा विमुग्ध, चित्त चिन्ताकुलं । श्यकतक्री आकृति और सीभा होती है, अव्यक्त अप्राप्तकी न आति न सीमा । एकाकीका साधूर्यं गरिम प्रणयकी अनन्तं अभियाम आकृतिं सिरजता जाता, स्वप्मकी सां अविकलं भार्व- नाएँ जनती जातीं, रउप-आकर्षणकी कार्य कल्पना सस्मोहक चित्र मानस-पद




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