परिमल | Parimal
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
266
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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+ है, यह जाति स्यॉ-स्यों कमज्ञोर होती गई है। सहसरों प्रकार के साहि-
' त्यिक बन्धनों से यह जाति स्वयं भीर्बेध गहै, जेते मकड़ी श्राय
ही अपने जाल्न में बेंघ गईं हो, जेसे फिर निकलने का एक ही उपाय
रह गया हो कि उस जाल कौ उल्टी परिक्रमा कर चह उससे बाहर
निकले । उस ऊर्णनाभ ने जितदी जटिल्वता दूसरे जीवों को फाँसने
के किये उस जञाक में की थी, वह उतने ही इृढ़ रूप से बैधा हुआ
है, अरब उसे अपनी मुक्ति के ज्िये उन तमाम बन्धनों को पार करना
होगा । यही हाल वर्तमान समय में हमारे काव्य-साहित्य का है ।
इस समय के और पराधीन काल क॑ काव्यामुशासनों को देखकर
हम जाति की मानसिक स्थिति को भी देख ले सकते हैं। अनुशासन
के समुदाय चारों तरफ़ से उसे जकड़े हुए हैं -साहित्य के साथ-
साथ राय, समाज, धर्म, व्यवसाय, सभी कुछ पराधीन हो गए हैं ।
] हैं, इसलिये उन्हें प्यार करनेवाली बृत्ति भो एक
६ लगाया करती है, श्रौर इस तरद्द उस वृत्ति
मनष्य भी चाहे पहले का स्वतनन््त्र हो; पर
पराधीन हो जाता है। नियम और अनु-
परिचायक द्वोते हैं और क्रमंशः मनुष्य-जाति
कुल अुदृतर ४४1 गाक्ाम से ग़लाम कर देनेवाज्ञे।
রানিং জা ও রি ४सके काब्य में देख पड़ती है । इस तरह जाति
के मुक्तिप्रयास का पता चल्नता है। धीरे-धीरे चित्र-प्रियता छूटने
लगती है। मन एक खुली इ प्रशस्त भूमि में विहार करना चाहता
है। चित्रों की सष्टि तो होती है, पर वहाँ डन तमाम चित्रां को
अनादि और अनन्त सौन्दर्य में मित्राने की चेश रहती है । बक
में जले तमाम वर्णो की छुटा, सौन्दर्य आदि दिखत्वाकर उसे फिर
किसी ने वाए्प में दिल्लीन कर दिया हो या अ्रसीम सागर से জিআা
दिया हो। साद्वित्य में इस समय यही प्रयत्न ज़ोर पकड़ता जा रहा
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