श्री भागवत दर्शन भागवती कथा (खण्ड - 42) | Shri Bhagwat Darshan Bhagvati Katha [ Khand - 42 ]

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Shri Bhagwat Darshan Bhagvati Katha [ Khand - 42 ] by श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी - Shri Prabhudutt Brahmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रासेश्वर की रासेच्छा [ €५६ ] अगवानपि ता गात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः । वीक्ष्य रन्तु मनश्चक्रे योगमायाम्ुपाशितः ॥& (श्री भा० १० स्क० २६ झ्र० १ श्लोक ) छप्पय ब्रजबनितनि अनुराग नपत्लमहँ नित नव विकसत । गिरघर नटबर नाम सनत अतिशय हिय हुलतत ॥ ग्रयम ख्रवन- फ्रेंसि गये नयन प्रनि भये पराये। मन अटक्यो लखि रूप जगत्‌ के काज गुलाये ॥ नाम श्रवन पूनि दरश करि, चित्त पर्त हित ভি गयो। प्रस पाह पुनि केलि हित, सुरति माव जायत मयो ॥ प्रेम का पथ बड़ा ही अटपटा है। प्रेस सनके अनुकूल मार्ग है , संस्तार में ऐसा कोई नहीं है, जो प्रेम न चाहता हो,' जिसके मन में प्रेम करमे की अभिलापा न.हो। प्रेम कोई अपरिचित बस्सु नहीं है। प्रम को सभी जानते हैं। पशु-पक्ती, कोट प्रतंग प्रेम करना तो सभो जानते हैं | अन्तर इतना द्वी है, एक नित्य से य ५. नि 2७. শি भरि ০২ प्रेम एक अनित्य से प्रेम । एक बिम्ब से प्रेम एक प्रतिविम्ब से ক্ষ श्रीशुकदेवजी कहते हैं--“'राजन्‌ ! भगवान्‌ मे भी शरद ऋतु की उम्र रात्रिपों को देखकर जिनमें मल्चिकरा के कुछुम खिले हैं मोगमाया “का प्राश्षप लेकर रमण करने की इच्छा की 17




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