भगवान् कुंदकुंदाचार्य | Bhagwan Kundkundacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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£ < ১৩৪৫ भगवान्‌ कुन्दकुन्दाचर्य । सगरं भगवान्‌ वी, मेगठं गोतमो गणी | मग्रं कन्दकुन्दा्याः, जनधर्मस्ति मंगल ॥ বাতাস सर्वेमान्य महत्त । इस नित्यस्‍्मरणीय प्रसिद्ध छोक द्वारा अंतिम तीथैकर श्री भगवान महावीर ओर उनके मुख्य गणघर श्री इन्द्रभूति गोतमस्वामीके साथर ही इन आवायैशिरोमणिका मंगलगान इनकी स्वेमान्य महत्ता और पूज्यताका स्पष्ट प्रमाण है । कर्णाटक भाषाकी एक हस्तलिखित “गणमेद” सम्बन्धी पुस्त- कसे जान पड़ता है कि धर्म प्रचाराथे दक्षिण भारतमें दिगम्बर जैन मुनियांके चार संघ स्थापित हमे थे, उनमें एक सेन संघके अतिरिक्त, जो श्री वृषभसेनका अन्वयी था शेष तीन नन्दि, सिंह ओर देवसंज्ञक संघोंका मुनि सम्प्रदाय अपनेको इन आचायेवरका अन्वयी प्रसिद्ध होनेमें अपना गौरव समझता था क्योंकि उस समय इन आचार्थवरकी `तालिक मर्ता, ` रेद्धान्तिक विद्व्ती, ओर सेयमपरायणता जगत्‌- विषयात दोचुकी थी, मौर लोकदृष्टिमें उचचतम आदर प्राप्त कर चुकी थी।




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