मणि - दीप | Mani Deep

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Mani Deep by विनोदशंकर व्यास - Vinod Shankar Vyas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बन्धनमुक्तः के लिए धन भी उपाजित कर छेती है, फिर भी सुरेश के बन्धन में पडी वह नीरस दिन व्यतीत कर रदी है । यह सब उसे असह्य हो गया था। उस दिन से आपस मेँ अनवोका था । सुरेश आकर अपने कमरे मे चखा जाता ओर नीला अपने कमरे मेँ रहती । सुरेश की मानसिक व्यग्रता इतनी बद्‌ गयी थी किरात कोरी ओंख कट जाती । प्रभात की सफेदो में वह अपनी आँखों की लालिमा धो देने का प्रयल्न करता । यह सब जानते हुए भी नीखा अनजानसी बनी थो । कटुता के पौधे पनपने लगे । अन्त में अपने निश्चित निणय की सूचना देने के लिए सुरेश अधरात्रि के समय नीला के कमरे में गया। नीला जागते हुए भी सोई थी। सुरेश उसके पलंग पर न बैठ कर पास में पड़ी एक कुर्सी पर ही बेठ गया। रूम्प के धीमे प्रकाश में वह चुपचाप नीला को देख रहा था । नीला ने एक ठण्ढी सास ली | सुरेश ने कहा-सुनतो हो ! आश्चयं शो आकृति बनाते हुए नीला उठ बेठी। उसने पुछा--कहिये ? मैं इस समय तुम्हें इसी लिए कष्ट देने आया हूँ कि अब और अधिक उलझन में तुम्हें नहीं रखना चाहता ।! 'केसी उलझन ¢ “मँ अब जा रहा हूँ । निकट भविष्य में छोटने की सम्भावना भी नहीं ই। तुम्हारी इच्छा दो तो यहीं रहो नहीं तो अपने घर ११




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