स्वतंत्रता का परिणाम | Swatantrata Ka Parinam

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Swatantrata Ka Parinam by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२० तिरे क = मी बरणें लगवर मानव-ससार मे खीन्दयं प्रात न्सस्ध्या के बाली এ माति ছিনিত हो उठता है 1 अपन साथ दूसरे का, स्वाये वे साथ प्रेम वा जहाँ पर के है, वह पर मगल वी रक्षा वरना चहुत सुन्दर एवं बहुत फट রা है । দাবিতে ীলা मुख्दर होता है वँसा ही सुम्दर है. एवं कवित्त লগ कठिन होता है, वैसा ही कठिन है 1 कवि जिम भाषा में कवित्व को प्रकट करता चाहता है हि भाषा तो उसकी बनाई हुई नहीं है । कवि ঈ जन्म लेने से बहुत समन पहले ही वह भाषा अपनी एक स्वतस्तता को হিল সুধী £) বি जिस भाव को जिस तरह से व्यक्त करना चाहता है, भाषा ठीष खी तरह के ढेर वो नहीं फानती। उख समयक्षविके भावकी म्वतन्परह एव भाव प्रकट परते कै उपाम कौ स्वतन्वा में एवं इन्द्र हीता हैं। यदि वह द्वद्दध बेवल इन्द्र के आकार में ही पाठकों की दृष्टि में पहती रहे, तो पाठक काव्य की निन्‍दा करता है, बहता है, भाषा के साथ সার का मेल नहीं हुआ । ऐसे स्थल पर वात का अर्थ ग्रहण होने पर भी यह হম নী तृप्त नही बर पाती । जो कवि भाव की स्वतन्त्रता एव भाषा की स्वतन्त्रता के अडिवार्ग इन्द्र को बचाकर सोंदर्य की रक्षा कर पाछे हैं। वे घन्य हो जाते हैं। जो कहने को बान है, उसे पूरा कह परामा बठिन है, भाप की बांघा के बारण क्तिना ही कहा जा सकता है एवं कितना ही नहीं कट्ठा जा सवता-- परन्तु फ़िर भी सौन्दर्य को अर्फरुटित वरना होगा, दवि वा यह्दी काम है । भाव की जितनी भी হানি ছুই दै, घौदमं उम्चकी अपेक्षा बहुत अधिक एति कर देता है 1 उमी तरहू हम अपनी स्वतन्त्रता को ससार के घोच प्रगट बरतें हैं, वद्द ससार तो हमारे अपने हार्थो मे गड़ा हुमा नहीं है; बह हमे पग> परम पर बाधा देता है जैसा होने पर सब ओर से हरा पूरा विकास हो पाता, पंसी तस्यारी चारों और नहीं है, सुत्ता स़सार में हमारे पाप




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