जैन सम्प्रदाय शिक्षा | 1882 Jain Sampraday Shiksha

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1882 Jain Sampraday Shiksha by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम अध्याय ॥ ९ चाहिये, किन्तु उन में शड्ढा नहीं करनी चाहिये || यह सन्धिसूतरक्रम से प्रथम चरण समाप्त हुआ ॥ यह प्रथम अध्याय का व्याकरण विषय नामक दूसरा प्रकरण समाप्त हुआ ॥ तीसरा प्रकरण ८ व॑णैविचार ). १---भाषा उसे कहते हैं जिसके द्वारा मनुष्य अपने मन के विचार का प्रकाश करता ই] २--भाषा वाक्यो से, वाक्य पदों से ओर पद अक्षरों से बनते हैं ॥ ३- व्याकरण उस विद्या फो कहते है जिसके पढ़ने से मनुष्य को शुद्ध २ बोलने अथवा लिखने का ज्ञान होता है ॥ ४--व्याकरण के मुझ्य तीन भाग है--वर्णविचार, शब्द्साधन और वाक्यविन्यास ॥ ७५--वर्णविचार में अक्षरों के आकार, उच्चारण और उनकी मिलावट जादि का वर्णन है॥ ६---शब्दसाधन में शब्दों के भेद, अवस्था और व्युत्तत्ति का वर्णन है ॥ ७--वाक्यविन्यास भे शब्दों से वाक्य बनाने की रीति का वर्णन है ॥ व्णविचार ॥ !---अक्षर-शब्द के उस खंड का नाम है जिस का विभाग नहीं हौ सकता ॥ २--अक्षर दो प्रकार के हेते है खर और व्यज्ञन ॥ ३--खैर उन्हें कहते हैं जिनका उच्चारण अपने आप ही हो ॥ ४--खरोंके हख और दीप ये दो भेद है, इन्हीं को एकमात्रिक व द्विमत्रिक भी कहते दै ॥ ५--व्यज्ञन उन्हें कहते है जिनका उच्चारण खरकी सहायता बिना नदी दो सकता ॥ ६---अनुखार और विसगे भी एक प्रकार के व्यज्ञन माने गये है ॥ ७--किसी अक्षर के जागे कार शब्द जोड़ने से वही अक्षर समझा जाता है। जैसे क वा ककार इत्यादि ॥ ८---जवतक खर किसी व्यज्ञन से नही मिलते तबतक अपने असली खरूप में रहते हैं परन्तु मिलने पर माज़ारूप में हो जाते हैं. जेसे कृ+भ-क, कू+इ-्कि, कु+उन्कु হি, জাতি ॥ 0 ता णा १. यद्यपि यह प्रकरण वर्णेविचार नामक है तथापि उसका प्रारंभ करने ते पूव व्याकरण की कुट माब इक चक्ति प्रथम दिखाई गई ६ ॥ २--खथ राजन्त इति खराः॥ ३--अन्वगू भवति व्यक्षनम्‌ ॥




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