पत्रलता | Ptralata

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Ptralata  by श्री गुरुदत्त - Shri Gurudatt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पत्रलता श्ह महारानी राज्यश्नी श्राजकल किंसी श्रज्ञात भय से न्रसित रहा करती थीं | जब-जव भी वे श्रवलोकितेश्वर जी का उपदेश सुन कर ्राती थीं, उनके हृदय में साहस श्र स्फूर्ति भर जाया करती थी, परन्तु श्राज उनके कथन मे उसे कुछ भी वल प्रतीत नदी हुश्ना था । इस कारण उसके मन में न तो साहस ही उत्पन्न हुझा था और न स्कू्ति । वे अपने आगार मे पहुँची तो उन्होंने श्रपनो सखि कावत्यायिनी को वहाँ प्रतीक्षा करते पाया | कास्यायिनी चित्रकार थी । वह महारानी जी का चित्र बना रही थी और इस समय हाथ में तूलिका लिये, बन रहे चित्र का श्रव्ययन 'कर रही - थी | महारानी जी श्ाई' तो उसने उनसे कुछ काल के लिए सामने बैठ, चित्र को पूरा कराने का श्राग्रह करने के विचार से उनके मुख पर देखा; परन्ठु वहाँ शोक श्रौर गम्मीरता झंकित देख चुप रह गई । महारानी घम्म से झपने श्रासन पर बैठी तो कत्यायिनी ने तूलिका रंग के पात्र में रख दी श्रौर महारानी के पास श्राकर उनके समीप बैठ पूछने लगी, “महारानी जी ! क्‍या हुश्रा है !”” “नहीं जानती कि क्या हुझ्रा है! जब से विवाह कर यहाँ श्राई हूँ, यहाँ की वातें विलक्तण ही प्रतीत हुई है । इनको देखकर मेरा मन बैठता जाता है |” ' “यह स्वाभाविक ही है महारानी जी ! श्राप श्री प्रमाकरवधन की सुपुत्री श्र श्री राज्यवधन की भगिनी है, जिनके प्रासादों में आठों प्रहर सुमइ नग्न खड़्ग लिये घूमते रहते हैं, जहाँ दिन-रात खड्ग-भालो की मंकार गू'जा करती है और जहाँ बीरता की गाथाएँ गाई जाती हैं । इसके विपरीत यहाँ दिन-रात सुरीले स्वरों में “ुद्' शरण गच्छामि' दि की ध्वनि उठती रहती है । ऐसे वातावरण में भला श्रापका मन प्रसन्न रह सकता है ।”' “'कात्यायिनी !” महारानी ने कुछ सतरक होकर कहा, “तुम सदैव 'शर वहाँ की तुलना किया करती हो । यह व्यर्थ है । मै कहती हूँ.




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