हिंदी काव्य धारा | Hindi Kavya Dhara Ac 808
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
563
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)~ १ ह ~
(पौने दो करोड 6पये) कपडे और दूसरी चीजोको खरीदनेके लिए भारत भेजा
करता था। प्लीनी (२३-७६ ई०)ने बडे क्षोमसे लिखा था-- हमे अपनी
विलासिता और अपनी स्त्रियोंके लिए कितनी कीमत चुकानी पडती हं ।
उन्नीसवी सदीके आरम्भके अग्रेज भी प्लीनीकी तरह भारतीय कपडो और
मसालोंके लिए देशसे धन खिचते देख चिन्तित थे, यद्यपि वह दूसरी ओर
भारतको दृह भी रहे थे । भारत उन पाँच शताब्दियोमे शिल्प-व्यवसाय और
वाणिज्यम दुनियाका सबसे समृद्ध देश था। अरब, पश्चिमी-एशिया, उत्तरी
अफरीका और यूरोपसे अपार धन-राशि खिच-खिचकर हमारे देशमे चली आ
रही थी । शिल्प और व्यापार ही नही, कृषि भी उन पोच शताल्दियोमे हमारे
देशमे बहुत उन्नत-अवस्थामे थी। नदियों और जलाशयो द्वारा सिचाईके
प्रबन्धकी प्रथम जिम्मेदारी राज्यके ऊपर थी, इसे पाव्चात्य लेखकोने भी माना
हैं। इसका यह मतलब नहीं कि हमारी क्रंषि साइन्स-युगकी कृषिके समान
उन्नत थी । उस वक्त दुनियाकों आधुनिक भौतिक साइन्सका पता ही नहीं था
श्रौर जो कूं कृषि-विज्ञान सम्य-समारको जात था, भारतं भी उममे किमीसं
पीछे नही था ।
उस समयकी भारतीय समृद्धिकी वात सुनकर आप शायद सलयुगका
ख्वाब देखने लगेंगे, और कह उठेगे--' वह वस्तुत राम-राज्य था |” लेकिन
यह कहना बहुत गलत होगा । चीन, जावा, अफ्रिका, यूरोपस जो माया भारत-
से आ रही थी उसको भोगनेबाली सारी भारतीय जनता नहीं थी । कौन मोगन-
वाने थे, आइये इसे देखे । +
(१) राजा-सामन्त--इस सम्पत्तिके सबसे अधिक भागकों सामन्त-राजा
अपनी मौज और झारामके लिए कितना खर्च किया करते थे, इसकी वहाँ कोई
सीमा नहीं थी। आजकी कितनी ही देशी रियासतोकी तरह सारा राजकोष
ही उनका वैयक्तिक कोष नही था, बल्कि व्यापारियों और सेठोके खज़ानोंमे
भी जो कछ था, उसे खचं कर डालनेमे उनका हाथ पकडनेवाला कोई नही था ।
जिन्होंने हालके वाजिदअली गाह् तथा दूसरे विलासी गासकोकि भोग-विलास-
के बारेमे पडा ह, वह श्रासानीसे सम सकते हं कि उस कालके कन्नौज, मान्य-
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