कल्याण | Kalyan
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26 MB
कुल पष्ठ :
450
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पूज्यपाद श्रीउड़ियाखामीजीके उपदेश
प्रेषक--भक्त भीरामशरणदासजी
प्र४-महाराजजी ! उपासनामें कैसे रुचि हो ?
उ्वर-उपासना करनेसे ही उपासनामे रुचि हो
सकती है । जिसका जो इष्ट हो, उसे निरन्तर उसी-
का चिन्तन करते रहना चाहिये । हम जिसकी निरन्तर
भावना करेंगे, वह वस्तु हमें अवश्य प्राप्त हो जायगी |
उपासक तो एक नथी सृष्टि पैदा कर लेता है। इस
प्राकृत संसारे .तो उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता ।
प्र०-भगवन् ! ऐसी दिव्य दृष्टि कैसे प्राप्त हो ?
3० -बह तो भगवद्भजनसे ही प्राप्त हो सकती है ।
भजनसे ऐसी कौन चीज है, जो प्राप्त नहीं हो सकती।
इससे अष्ट सिद्धि ओर निर्विकल्प समाधि भी प्राप्त हो
सकती है । ऐसे महापुरुषोंकी ही दिव्य बृन्दावनके
दर्शन होते हैं, साधारण बुद्धिवाले उसे कैसे देख
सकते हैँ । वास्तवमें भक्त और ज्ञानी इस सृश्िमें नहीं
रहते | उनकी तो सृष्टि ही अलग होती है। इस
सृश्मिं तो वे आग लगाकर आते हैं ।
प्र०-महाराजजी ! उनकी सृष्टि केसी होती है ?
3० - जिसमें निरन्तर रास हो रहा है ।
प्र ०-वह केसे दीखे
3०-जो इस दुनियासे अंधे हैं, उन्हें ही वह दिभ्य
रास दिखायी देता है ।
प्र०-इस दुनियाके त्यागका क्या खरूप है !
ॐ ०-इस संसारके त्यागके दो रूप है-- देहत्याग ओर
गेहत्याग | देहत्याग तो यह है कि र्ठैगोटीको भी फेंक दिया
जाय, तथा गेहत्याग यह है किं पञ्चकोषसे अख हो जाय ।
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१. यदि भगवानका चिन्तन करते हुए हमें संसार-
की चीजें अच्छी छगती हैं तो समझना चाहिये कि
हम अभी अपने रक््यसे कीसों दूर है । जब संसारकी
बढ़िया-से-बढ़िया चीजको देखकर भी हमें श्रणा हो
तभी समझना चाहिये कि कुछ भगवदनुराग हुआ |
भगवद्भधक्तको तो सभी चीजे तुच्छ दिखायी देनी चाहिये।
२. याद रक््खो नाम मन्त्रसे भी बढ़कर है; क्योंकि
मन्त्रजपमें तो विधिकी आवश्यकता है, किन्तु नामजपमें
कोई विधि नहीं है | नाममें इतनी शक्ति है कि इससे
संसारसमुद्र भी सूख जाता है। श्रीगोसाईैजी कहते है -
नासु छेत भवसिधु सुखाहीं । करहु बिचारु सुजत मन साहीं ॥
३. कर्म और उपासनासे ज्ञानका कोई विरोध नहीं
है, उसका तिरोध तो अज्ञानसे ही है |
সফি
॥
क्षणभंगुर जीवनकी
मलयाचलकी .शुत्ति
০
कलि-काल. कुठार
रसनासे अनुरोध
कल ग्रातकोीं जाने खिली न खिली;
शीतल मन्द
सुगन्ध समीर
লিখ ধিবনা,
तन “नम्र” से चोट हिली न चिली;
कह ठे हरिनाम अरी रतना 1
फिर अन्त-समयमे हिली न हिली ॥
कलिका
मिली न मिली ।
লস
০
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