कल्याण | Kalyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पूज्यपाद श्रीउड़ियाखामीजीके उपदेश प्रेषक--भक्त भीरामशरणदासजी प्र४-महाराजजी ! उपासनामें कैसे रुचि हो ? उ्वर-उपासना करनेसे ही उपासनामे रुचि हो सकती है । जिसका जो इष्ट हो, उसे निरन्तर उसी- का चिन्तन करते रहना चाहिये । हम जिसकी निरन्तर भावना करेंगे, वह वस्तु हमें अवश्य प्राप्त हो जायगी | उपासक तो एक नथी सृष्टि पैदा कर लेता है। इस प्राकृत संसारे .तो उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता । प्र०-भगवन्‌ ! ऐसी दिव्य दृष्टि कैसे प्राप्त हो ? 3० -बह तो भगवद्भजनसे ही प्राप्त हो सकती है । भजनसे ऐसी कौन चीज है, जो प्राप्त नहीं हो सकती। इससे अष्ट सिद्धि ओर निर्विकल्प समाधि भी प्राप्त हो सकती है । ऐसे महापुरुषोंकी ही दिव्य बृन्दावनके दर्शन होते हैं, साधारण बुद्धिवाले उसे कैसे देख सकते हैँ । वास्तवमें भक्त और ज्ञानी इस सृश्िमें नहीं रहते | उनकी तो सृष्टि ही अलग होती है। इस सृश्मिं तो वे आग लगाकर आते हैं । प्र०-महाराजजी ! उनकी सृष्टि केसी होती है ? 3० - जिसमें निरन्तर रास हो रहा है । प्र ०-वह केसे दीखे 3०-जो इस दुनियासे अंधे हैं, उन्हें ही वह दिभ्य रास दिखायी देता है । प्र०-इस दुनियाके त्यागका क्‍या खरूप है ! ॐ ०-इस संसारके त्यागके दो रूप है-- देहत्याग ओर गेहत्याग | देहत्याग तो यह है कि र्ठैगोटीको भी फेंक दिया जाय, तथा गेहत्याग यह है किं पञ्चकोषसे अख हो जाय । ১৫ ১৫ ৮ [,4 १. यदि भगवानका चिन्तन करते हुए हमें संसार- की चीजें अच्छी छगती हैं तो समझना चाहिये कि हम अभी अपने रक््यसे कीसों दूर है । जब संसारकी बढ़िया-से-बढ़िया चीजको देखकर भी हमें श्रणा हो तभी समझना चाहिये कि कुछ भगवदनुराग हुआ | भगवद्भधक्तको तो सभी चीजे तुच्छ दिखायी देनी चाहिये। २. याद रक्‍्खो नाम मन्त्रसे भी बढ़कर है; क्योंकि मन्त्रजपमें तो विधिकी आवश्यकता है, किन्तु नामजपमें कोई विधि नहीं है | नाममें इतनी शक्ति है कि इससे संसारसमुद्र भी सूख जाता है। श्रीगोसाईैजी कहते है - नासु छेत भवसिधु सुखाहीं । करहु बिचारु सुजत मन साहीं ॥ ३. कर्म और उपासनासे ज्ञानका कोई विरोध नहीं है, उसका तिरोध तो अज्ञानसे ही है | সফি ॥ क्षणभंगुर जीवनकी मलयाचलकी .शुत्ति ০ कलि-काल. कुठार रसनासे अनुरोध कल ग्रातकोीं जाने खिली न खिली; शीतल मन्द सुगन्ध समीर লিখ ধিবনা, तन “नम्र” से चोट हिली न चिली; कह ठे हरिनाम अरी रतना 1 फिर अन्त-समयमे हिली न हिली ॥ कलिका मिली न मिली । লস ০




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