वासवदत्ता | Vasavdatta
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
273
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)8 वांसेवदेततौ ।
अषिदितगुणाऽपि सत्कषिभणितिः कर्णेषु वमति भघुधाराम्।
अनधिगतपरिमिलाऽपि ছি हरति दशं मालंतीमाले ॥ ११॥
गुणिनामपि निजरूपग्रतिपत्तिः परत एव सम्भवति |
सखमहिमदशेनमकच्णोमुंकरतले जायते यस्मात् । १२॥
सरस्वतीदत्तवरप्रसादश्वक्रे सु बन्धुः सुजमेकवन्धुः |
प्रत्यक्षरंशेषमंयप्रबंस्ध विन्यासवेदग्ध्यनिधिर्निवन्धम् !। १३ [|
विहता नष्टा वैँकाः वकपक्षिणो न विलूसन्ति न रॉजन्ले कंड्की महांबेकेंश्वं मों घरंतिं।
जलाभावात्सवेषामिव यत्र ततन्नोड़ीनत्वात् ॥ १० ॥
अविदितेति--न विद्िता अज्ञाता गुणा ओजः्प्रसादादयों यस्याः ताध्शी अपि
सस्कवेः रमणीयार्थवर्णनपदोः भणितिर्वचनं कर्णेषु मधुधारां मकरन्दसन्ततिं वमति
उदहिरति। अर्थापरिज्ञानमन्तराऽपि श्रवणमात्रेणेव श्रोतुः श्रोश्न आप्याययतांति भावः।
हि यसः नाधिंगतो न रूब्धः परिमलो गन्धो यस्याः सा भज्ुवातस्थितत्वास् साइश्यपि
मालतीमाला दृश्य नेत्र हरति आकर्षति ॥ ११ ॥
गेणिनांमिति--गुणिनां गुणवतामंपि साधूनां लिजस्थ स्वीयेस्य रूपेस्थ स्वेरपसस््थ
अतिपत्तिं: ज्ञानं परतोअन्यस्मादेव विवेचकादेघेति भावेः। भवति जायतें। यस्मातें
अतः, अंदणो: चरुंधोः स्वमहिस्नः निजरामंणीयकरविंशालत्वयांदे! दर्शन॑ शाममवलोकर्म
या मुकरंतले दर्षणे जायते । यथा चक्तुषी स्वविस्तारादिक दर्षणादेवावगन्छुलः
कैवमहमपि स्वप्रबन्धमाहात्म्य विवेचकानां विवेचनया ज्ञास्यामिं | साधव एव मत्कृतेः
खौष्टवे प्रमाणमिति भावः ॥ १२ ॥
सरस्वंतीति- सरस्वत्या वाग्देव्या दत्तेन वरण अंमीष्ट॑लासैन স্নান: পলক
ग्रन्थनिर्माणोत्साह इति यावत् , यस्य सः तथोक्तः | यँद्वा-संरंस्वत्या देती वर: अष्टः
भेलादोऽनुभरहो यस्मै सः । सुजान कौधूनामेकीं वन्धुः, भक्तरमरैरं प्रतीति प्रत्यक्षरं
कीलिमात्र शेष रहनेपर वह रसिकता सष्ट हो गयी; नये-भये ( कैवि अथष राजं ) अमे
लगे भौर कनं किसको नहीं खाता ( पीड़ित करता ) ই ॥ १० ॥
महाकवियौकी सृक्तियौँ प्रसाद-माधुर्यादिंगुर्णोके अनुभव শিলা মী” कैंवल सुर्नेनभात्रसे
কালীর मंधुकी वर्षा करती हैं। जसे, मालतीपुष्पोंकी मॉल सुगरंध ग्रहण किये बिना भी
दशनमात्रसे दृष्टिको आकर्षित करती है ॥ ११ ॥
णवो पुरुंधौकी भी अपने स्वरूपकां शान दूसरौके द्वारों ही हींतां हैं. क््यींकि आँखें
अपने वडप्पेनकां द॑दीभं दपण ही कर सकती हैं ॥ १२ ॥
सरस्वती देवीने वर प्रदानं कर जिसपर अनुभह प्रकाशित किया है और जौं संज्जनीका'
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