पचास कहानियां | Pachas Kahaniyan

Pachas Kahaniyan by विनोदशंकर व्यास - Vinod Shankar Vyas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्र हृदय की कसक वती सममू गी। अगर मेरा सौभाग्य अन्घे समाज को खलेगा, तो देखने देना। मैंने कहा--नहीं शान्ता, इस तरह समाज की अवहेलना करना ठीक नहीं। इमे इसी समाज मे रहना ओर मरना है । नवार दिन की इस जिन्दगी मे समाज से अपयश ठेकर जीना- मरना अच्छा नहीं | उसने मेरी बातों का कोई उत्तर नहों दिया। मैंने फिर कहा--- यह तो बताओ, तुम मेरी आत्मा को प्यार करती हो या क्षणः अङ्कुर शरीर को ? आपकी आत्मा को | तो देखो--यह शरीर ओर रूप एक दिन मिट्टी में मिल जायगा; किन्तु मेरी आत्मा सदा तुम्हारे साथ रहेगी । मेरा शरीर चाहे कहीं भी रहे, लेकिन तुम्हें मेरे वियोग का दुःख नहों उठाना पड़ेगा । मेरी बात सुनकर उसके हृदय पर बढ़ा आघात पहुँचा । उसने कहा--देख ली मैंने आपकी फिलासफी ! अच्छा, आप जाते ही है, तो जाइये; पर अपनी इस दासी को मुखा मत दीजियेगा । यह कहते-कते उसका समुह पीला पड़ गया । बगर से उसमे एक सुगन्धित रेशमी रूमाठ निकालकर कहा--लीजिये, यह है मेरी याददाइत ! मैंने रूमाल छेकर उसकी खुशबू से तबोयत को तर किया-- फिर उसे आँखों से छगाते हुए जेब में रख लिया। मैंने अपने टक सेदो किताबें निकालीं और उसे देते हुए कहा--छो, ये ही तुम्हें मरी याद दिलायेंगी । उसी दिन, रात की ट्रेन से, सबसे बिदा होकर, मैं घर की




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