संत साहित्य | Sant-sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पद संत-सा हित्य पहाड़ी पूर्वी ह्विन्दी एवं पश्चिमी हिन्दी । राजस्थानी समुदाय में राजस्थान की समस्त बोलियाँ श्राप जाती हैं । मिथिला पटना गया श्र वाराणासी गोरखपुर की स्थानीय बोलियाँ बिहारी समुदाय के श्रन्तगंत झाती हैं । पहाड़ी प्रदेश की बोलियाँ पहाड़ी उपभाषा के श्रन्तर्गत श्राती हैं । कुछ विद्वानों ने हिन्दी का प्रयोग भाषा विज्ञान की दृष्टि से केवल पद्चिमी हिन्दी के लिए किया है । उद्दू-हिस्दी श्र उर्दू का सूलाधार एक ही है। व्याकरण के रूपों की हष्टि से भी दोनों में श्रधिक अन्तर नहीं है । किन्तु साहित्य शब्दसमूह तथा लिपि में दोनों एक दुसरे से भिन्न हैं। साहित्यिक खड़ी बोली की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भारतीय है । वह संस्कृत की श्रोर उन्मुख हैं । उर्द अपना जीवन स्रोत फ़ारसी से ग्रहण करती है । व्यवहार की हृष्टि से साहित्यिक खड़ी बोली का व्यवहार उर्दू खड़ी बोली के बाद में ही हुमा था । इसका व्यवहार उर्दू-ए-मुल्ला भ्रर्थात दिल्‍ली के के बाहर फिले के शाही फ़ौजी बाजारों में होता था । दिल्‍ली मे पास की इस बोली के विदेशी शब्दों के रूप का नाम उर्द पड़ा । तुर्की में उर्दू का प्रथ बाजार होता है । वास्तव में प्रारम्भ में यह बाजारू भाषा ही थी । शाही दरबार के सम्पक में जो हिन्दू श्राते गये उन्होंने इसे श्रपनाया । धीरे-धीरे यह उत्तर भारत के दिष्ट मुसलमानों की भाषा हो गई । शासक समुदाय द्वारा भ्रपनाए जाने के कारण दिष्ट समुदाय में इसका प्रचार भी शीघ्रता से हुमा । इसका मूलाधार दिल्‍ली के निकट की खड़ी बोली ही थी । उद्गम की हा से ट्रिर्दी श्रौर उर्दू सगी बहनें ही कही जाएंगी । विकसित होने के साथ ही साथ इनमें भ्रस्तर झ्राता गया । ग्राहुम बेली का अनुमान है कि उर्दू का उद्गम खड़ी बोनी से त होकर पंजाबी से हुभ्रा है । उनके मतानुसार उर्द पंजाबी के झाधार पर लाहौर के श्रासपास पहले ही बन चुकी थी । दिल्‍नी में श्रानेवाले शासक उसे श्रपने साथ लाए । उसके लिए तक उपस्थित करते हुए ग्राहम बेली लिखते हैं कि ई० १०००-- १२०० में दिल्‍ली के शासन केन्द्र बनने पर भी लगभग दो सौ वर्षों तक मुसलमान शासक लाहौर में ही रहे । जनता के सम्पर्क में श्राने के लिए उन्होंने कोई न कोई भाषा सीखी ही होगी। यह पंजाबी ही थी । बेली साहब ने श्रपने मत की पुष्टि के लिए पुष्ट प्रमाण उपस्थित नहीं किए । सवेसम्मत मत यही है कि हिन्दी ग्रौर उद का मूलाधार दिल्‍ली मेरठ के भ्रासपास की खड़ी बोली ही है । उर्दू का उपयोग मुसलमान दरबार एवं सूफ़ी कवियों से प्रारम्भ । दिल्‍ली श्र झ्रागरा के दरबार की भाषा फ़ारसी थी । जनता की भाषा होने के कारण उर्दू हेप समभी जाती थी । श्रौरंगाबादी चली उर्दू के प्रथम प्रर्पात कवि थे । मुग़लकाल से उत्तरार्ध में दिल्‍ली श्रौर बाद को लखनऊ उर्दू साहित्य के विकसित केन्द्र हो गए. । बाजारू बोली का प्रयोग साहित्य में होने लगा । फ़ारसी के मिश्रण के कारण




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