प्रात - प्रदीप | Prat - Pradeep

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Prat - Pradeep by उपेन्द्रनाथ अश्क - Upendranath Ashk

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ५ | ज्षणिक को हमार सामने स्थिर कर हमे उस मै वसमे की-संत्ता प्रदान करता है । कवि की संवेदनशीलता अत्यन्त विकसित होती है उसके फहकहे साधारण लोगों से कही अधिक ऊँचे और उसका ऋन्दन उनसे कहीं अधिक द्रावक होता है । वह जनसाधारण से कहीं अधिक हँसता है, कही अधिक रोता है ओर कही अधिक महसूस करता है । नन्ही-ननन्‍्ही दूब पर वर्षा की हल्की-हल्की थपकी, मलयानिल के परस मात्र से पोधों का उन्मद-नर्तेन और वेगवती सरिता से अपनी ही छाया को चूसने के लिए वृक्षों की व्यग्रता हमारे लिए कोई विशेष अथे नही रखती, पर कवि के लिए रखती है, प्रकृति के इन मनोमुग्धकारी दृश्यों को देख कर उनका वणेन करने के लिये हम उतने मुखर, उतने आतुर नहीं हो जाते जितना कवि | प्राची की पलकों में जागा सुन्दर सुखद विहान । सहसा गूँज उठे नीडों मे मीठे मादक गन] तमं भागा, आभा इटलाई, वन की कली कली युस्काई, प्रकृति-परी ने ली ऑगडाई,




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