धनआनन्द | Dhannanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ ३ }) युग, दिवेदी-युग ) - खंड भी यही सूचित करते: है 1 श्रषरेजी साहित्य के इतिहासों में एलिजाबेथन या विक्टोरियन पीरियड नाम दूसरे प्रकार के उदाहरण हैं। हिंदी में अकवर-काल, दयानंद-काल नाम भी वैसे ही, हैं | विभाजन ओर , ज्ञामकरण में एक, ओर तो किसी विशेष कल আ युग की व्यापक प्रश्॑त्तियों -का बोध लक्ष्य होता है ओर दूसरी “ओर अंतर्विभाग का सुभीता | जहाँ तक प्रद्वत्तियों के वोध का पक्ष है इतर क्षेत्रों से नाम का अहण -आलस्य का सचक दे! साहित्य का इतिहास जनता की. मानस-पर॑परा का इतिहास होता है, उसे किसी शासक के नाम से प्रकट करना साहित्य की भाव- चारा के अज्ञान कौ घोषणा करना है | किसी विशिष्ट कवि या लेखक का नाम तब तक युग के साथ न जुड़ना चाहिए जब तक उसको भ्रवृत्तियोँ स्वमान्य न हो गई हों। भारतेंदु युग” ओर शिवेदी-युगः नाम को इती दृष्टि ते उचित कहा जा सकता है। अंतर्विभाग के लिए ध्यान में रखना होगा--विभाग के नाम की व्याप्ति को | अंतर्विभाग व्यापक प्रद्ृत्तियों के स्क्रपों का बोधक होता ही है, साथ ही किसी विभाग की दीघे सीमा के विवेचन की कठिनाई भी सुगम करता है। श्रत्येक्र काल के प्रथक्‌ एथक युग या ,सामान्य प्रवृत्तियों के प्रृथक्‌-पथक स्क्रध बतलाने ओर सममऩे क्री दृष्टि से अनिवाय होते हैं | अतः विद्वान्‌ ऐतिहासिक सदा विभाजन करके ही विवेचन में प्रश्नत्त होते है। शुक्लनजी ने हिंदी-साहित्य का , पूर्व-मध्यकाल विवेचन-सोकर्थ के ही लिए चार अंतर्विभागों में विभक्त किया है। निगुण तथा सगुण धाराकी दो-दो शाखां मानकर ये (नाम रे दि--त्तानमार्गी-प्रेममागीं तथा रामभक्ति-ङृष्णभक्ति 1 इस प्रकार किसी साहित्य-काल के नामकरण की उपयक्तता के दो तत्त्व उपलब्ध होते हैं। एक तो नाम सवंसासान्य भ्र्ृत्ति का बोधक हो, दूसरे अत- विभाग का मागं अनवरुद्ध रखे | सर्वप्तासान्य प्रद्नत्ति की बोघकता का संबध किसी विशेष काल में प्रस्तुत अंथराशि' के बाहुल्य से है, समस्तता से नही। किसी काल में बहुत सी भ्रक्नत्तियाँ पूच काल की भी चलती रहती हैं भर कुछ नए काल का आभास देती हुई भी सामने आती हैं। इसलिए बाहुल्य की दृष्टि ही सवं व्यापृत प्रद्तत्तियों का प्रकरत रूप निर्दिष्ट कर सकती है | १ आधुनिक दिदी-सादित्य का इतिद।स--श्री कृष्णशकर शुक्ल-कृत ।




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