नवनीत | Navneeti

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Navneeti by श्रीगोपाल नेवटिया - Srigopal Nevtiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नगेंद्रनाथ गुप्त परमहस का सान्निध्य सन १८८१ म एक दिन श्री चयवचद्र मेनं काफी जडी योटी के चाय अपने दामाद, कूचविहार के महाराज रूरपेंद्र नारायण भूप के अम्निवोट मे रामकृष्ण परमहंच से मिलने दक्षिणेश्वर गये। मुझे मी उस दल में सम्मिल्ति होने का सौमाग्व मिला। दक्षिणेश्वर मे हम लोग नहीं उतगे, अपितु स्ववं परमहंस हमारी क्ती पर आं गये। साथ मे उनका मतीजा हृडय था, जो हमारे लिए एक टोकरी म कुरमुरा और मदेन्न लाया था। अमिवोट नठी के बहाव के विपरीत सोमरा की ओर चल पडी। परमहस ने छाल किनारी की वोती और कुरता पहन रखा था, डित बटन बंद नहीं थे। ज्यों ही वे किब्ती पर आये, हम सत्र उठ खडे हुए और क्शवचद्र ने हाथ पकडकर परमहंस को अपने पास वेठाया। फिर केशवर्चद्र ने इमारे से मुझे बुलाकर पास में वैठने को कहा और में लगभग उनके चरणों से सठकर नैठ गया। प्रमहंस सावले र्ग के ये, उनके दादी थी, उनकी आर कमी पूरी उन्मीटित नही होती थी ओर अतर्मुख था। वे मझले कद के थ, गरौर से पतटे, ल्गभग कग थे और कमजोर-से लगते ये । वास्तव म॑ वे अत्यंत ^ नर्व › स्वभाव के थे ओर हत्की-सी भी गारवैरिक्त पीडा को तीव्रता से अनुमच करते थे। वे हल्की-सी और बडी प्यारी ने वाटी हक्लाद्ट कैः साथ बडी सीधी-खादी अगला बोलते थे और “आप? और “ठुम? ((आपनि? और “नुमि ‡) मं अक्सर घोटाला कर देते थे। लगभग सारी बातचीत उन्हीं ने की। थञेप सत्र, লহ मी; उत्सुकता और श्रद्धा के साथ सुनते रहे। मैंने कमी किसी को वैसा त्रोते नहीं सुना है। यह उनकी मक्ति और नान क अखूट लोत से उमडते हुए गहरे आध्यात्मिक सल्यों भौर अनुभवो का अखड प्रवाह था। उनकी उपमाएं, रूपक ओर दृश्ात जितने अधिक प्रमावद्याडी थे, उतने ही मोल्कि भी थे। ब्रोटते-बोलने वे क्ड बार केगवचद्र के निकट इस तरह आ जाते थ करं अनजाने




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