बच्चन के साहित्य में सौन्दर्यानुभूति | Bacchan Ke Sahity Men Saundaryanubhuti

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Bacchan Ke Sahity Men Saundaryanubhuti by माधुरी शुक्ला - Madhuri Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पेठ गये । क्वि के पास्र एक सदर्यागरही मौलिक दृष्टि है, जो जीवन के अनुकूल तथा प्रतिकूल प्रसंगो में “सुन्दरम” का साक्षात्कार कर लेती है। विश्व के विविध परिप्रेक्ष्य बच्चन को सौंदर्य सरोवर की _ उत्ताल लहरों की ओर आकृष्ट करते हैं। यद्यपि उनके रचना संसार में विविध रस उपस्थित हैं. किन्तु श्रंगार रस-विजेष रूप से वियोग श्रंगार की कमनीय मधुरिमा, पाठक को सौंदर्यबोध की पीयूष धारा से सराबोर कर देती है। उन्होंने श्रंगार के दोनों पक्षों-संयोग तथा विप्रलम्भ को अपनी लेखनी का आश्रय दिया है। एक ओर बच्चन की मुस्कानों से संयोग श्रंगार का बालारुण अपनी अरुणिमा के साथ उदित होता दृष्टिगोचर होता है, वहीं दूसरी ओर प्रिय के वियोग से व्यथित उनके आँसुओं के रूप में अस्ताचलगामी सूर्य की कारुणिक लालिमा के दर्शन होते हैं। “बच्चन” अपनी अभिव्यक्ति के प्रति बेहद ईमानदार हैं। उनकी अभिव्यक्ति उनके भोगे यथार्थं का मर्मस्पर्शी प्रस्तुतीकरण है। वे मुलतः कवि हैं, अतः उनका काब्येतर सुजन भी उनकी ` भाव विह्वलता की रसवन्ती रमणीयता से प्रभावित हुआ है। वे तक पूर्ण चेतना के प्रति सजग रहने के उपक्रम में प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। उनकी रचनाओं को पढ़कर यह कहने को जी चाहता है कि “सौंदर्य सृष्टि में नहीं दृष्टि में होता है।” बच्चन ने जीवन और जगत के विविध प्रसंगों और संदर्भो में सौंदर्य का साक्षात्कार किया था, या यों कहें कि उनकी सौंदर्य में डूबी चेतना जीवन और जगत के विविधि प्रंसगों के माध्यम से अभिव्यक्ति हुई है। अन्त मेँ यह कहना अत्युक्ति न होगी कि ` बच्चन का सम्पूर्ण रचना संसार उनकी सौंदर्यानुभूति से सराबोर है। अनुकूलता और प्रतिकूलता, सुख और दुख, संयोग और वियोग ये समस्त द्नन्द्वात्मक परिस्थितियों उनकी तीव्र सौंदर्यानुभूति को क्षरित, सीमित या समाप्त नही कर्‌ पाती है । सम्पूर्णं प्रकृति उनके प्रियतम की ही अभिव्यक्ति हे। उनका तुमः प्रकृति मेँ विम्बायित हे कि उनके (तुम में प्रकृति बिम्बित हे, इसका वे निर्णय ही नहीं कर पाते हैं - तुम्हें अपनी बाहों में देख नहीं कर पाता मैं अनुमान प्रकृति म॑ तुम बिम्बित শর্ট भोः कि तुमसे बिम्बित प्रकृति अशेष | तुम्हारे नील झील से नैन नील শিল্পা से लहे केश ` ` १ बच्चन - बसेरे से दूर - पृष्ठ सं० - १०७




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