कथायन | Kathayan

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Kathayan by आनंद प्रकाश जैन - Aanand Prakash Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कथायन ११ इस उत्तर से महान्‌ दौक्तपियर की स्वगस्य आमा भी घायल हो उठी होगी । बेचारा सुनील तो मृत्यु-लोक का प्राणी था। उसका अस्तित्व तक कम्पायमान हो उठा । कई क्षण वह सच्नाठे से आक्रान्त, अवाकू बैठा रहा । फिर एक टके के साथ उठ खड़ा हुआ भौर उक्षन ची कर कहा, “मैं अत्यायी हूं ! मैंने अन्याय किया ! यह तुम कहती हो ? तुम जानती हो यह काम क्‍यों नहीं हो सकता । उसमें मेरा कोई दखल नहीं है। फिर भी, फिर भी तुम ...!” क्रोध और दुःख के आवेग के मारे आगे उससे बोला नहीं गया । उसके हाथ ऐंठने लगे । यदि यह घटना चालीस' वर्ष पूर्व घटी होती, तो बह कांचत को उठा कर छत से नीचे फेंक देता और फिर लात और घृसों से मार मार कर अधमरी कर देता । पर उत्तीस सौ सत्तावत में यह सम्भव नहीं था। इसलिये उसने उन ऐठे हुए ह्वाथों से अपने ही सिर को ठोंक लिया । इस अप्रत्याशित व्यवहार को देख कर कांचन एक बार तो तड़पी पर दूसरे ही क्षण सुनील के मन की हिंसा को वह ताड़ गई--आखिर इस आक्रमण का लक्ष्य तो मैं ही हूं। पृर्ष इसके अतिरिक्त और कर भी क्या सकता है ? और वह अपने स्थान से रच मात्र भी नहीं हिली । सुनील उमी आवेश में उसे सुना सुना कर जो भी जी में आया कहने लगा । कांचन उत्तर देने से नहीं चुकी भौर हर उत्तर पर सुनील बार बार सिर को ठोंकने लगा । उसने कहा, 'राक्षसी ! तुम्र चाहती हो मैं मर जाऊ,, तो यही हो । तब तुम प्रसन्‍त होगी ।” कांचन बोली, “और होती होंगी तो मैं भी होऊंगी। कब तुमने मेरे लिये कुछ किया है जो मैं...” सुनील बीच में ही चीख उठा, “हां, हां, तुम्हें तो मेरे मरने से सुख होगा ही! तुम अभी क्‍यों नहीं चली जातीं ? जाओ, भभी जाओ।॥। में लिखे देता हूं। सरकार जो खच देने को कहेगी दूंगा पर, ..। और उसका गला भर आया | बहू कई बार सिर ठोंक चुका था। उससे बेहद पीड़ा हो रही थी । उसने अपनी बड़ी लड़की को पुकार कर एक गिलास पानी मांगा । उसे पी कर वह लेट गया और उसी तीखी वाणी में अहृय को सुना-सुता कर बोलता रहा, स्वार्थी) सब स्वार्थी ! सब अपने को देखते हैं। दूसरे को कोई नहीं देखता । कंसे खटता हूं, कैसे विपरीत परिस्थितियों में काम करता हूं! अपना सुख ही सब का लक्ष्य है, केवल' अपना सुख ।” इत्यादि, इत्यादि । इस नाटक में बड़ा.तीत्र आवेग और आक्रोश था। पर इस बारे में




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