बालबोध जैनधर्म भाग - 4 | Balbodh Jaindharam Bhag 4

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Balbodh Jaindharam Bhag 4 by दयाचंद्र गोपलिय - Dyachandra Gopliya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१३ ) वाखोकरो चारों तरफसे उनका मुह दिखलाई देता है। कोई उनपर उपमगे नहीं कर सकता आर अदयाका उनमेसे बिलकुल अभाय हो जाता है | न आहार लेते हैं, न उनकी पलके झपकती है, न उनके नाल और नाखून पते हैं, आर न उनके शरीरकी परछाई पडती है। वे सम्पूर्ण निध्याओं आर शास्त्रोऊे ज्ञाता हो जाते हैं | ६ कपलाहार (ग्रासयाला ) आहार न लेना, ७ यमस्तविव्रायोका खामीपना, ८ नसे शोका न बढना, ९ नेत्रोंडी पलफें न झपकना, १० और शरीरकी छाया न पडना, ये दश अतिणय केयलत्ञान होनेके प्रगट समय गट हैते द दैवत घौदह अअतिशय । देवरचित हैं चारदण, थद्धमागधी भाष । आपममाहीं मित्रता, निर्मलदिश नकारा ॥ होत फूलफल ऋतु सत्र, श्थिवी काचसमान । चरण कमल तक फमल दे, नभते जयजयाने ॥ मन्द्‌ सुगध यारि पुनि, गधोदफकी इटि । भूमिविप्‌ कष्टक नही, दर्पमयी सय ख्षटि ॥ धर्मयक्र आगे रहे, पुनि रसुमगक मार । अतिशय श्रीअरहते, ये चातीस अकार ॥ १ भगयानकी अद्ध मागधी भाषाका होना, २ समस्त जीयेंमे परस्पर मित्रताका होना, ३ दिशाओंफ़ा निर्मल होना, व शाप + 7-7 ्य-+- 5 1.० মাথা | २ दिशा । है का, दर्पेथ 1 ४ शावाशसे | £ दाणयी। ६ ह्वा । ७ कटि, कहर | ८ आठ 1




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