हिंदी साहित्य की प्रवृत्तियां | Hindi Saahitya Ki Pravrittiyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी साहित्य की परम्परा ] | ७ तो जैन अ्पश्रंश साहित्य, दूसरा जैनेतर अपश्रंश साहित्य । जंन-ग्रपभ्र श- साहित्य की महत्ता दो कारणों से है। एक तो धामिक आश्रय पाकर ये रचनाएँ अपने मूल एवं प्रामाणिक रूप मे उपलब्ध हैं, दूसरे ये हमें तत्कालीन परिस्थिति एवं परवत्ती लोकभाषा के काव्य रूपों का उद्भव एवं विकास को समभने में सहायता देती हैं । इन रचनाश्रो मे उस काल की भाषागत परिस्थितियों एवम्‌ प्रवृत्तियों का स्वरूप भी स्पष्ट हो जाता है । जहाँ तक काव्य रूपों का सम्बन्ध है श्रादिकालीन चरित-काव्यों का विकास समभने के लिए जैन-अपभ्रश के तीन ` प्रसिद्ध कवि स्वयंभू, , पृष्पदन्तः प्रर धनपाल- हैँ । इन कवियों ने बड़ सुन्दर चरित-काव्यो की रचना की है ¦ भ्राचयं हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जेन कवियों के लिखे चरित-काग्यो का महत्व इन शब्दों में व्यक्त किया है-- इन चरित- काब्यों के श्रध्ययन से परवर्तीकाल के हिन्दी साहित्य के कथनको, कथानक- रूढ़ियों, काव्य-रूपों, कवि-प्रसिद्धियों, छत्दयोजना, वर्शानशली, वस्तु-विन्यास, कवि-कौशल आदि की कहानी बहुत स्पष्ट हो जाती है। इसलिये इन काब्यों से हिन्दी साहित्य के विकास के ग्रध्ययन में बहुत महत्त्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती है ।” जन-अ्रपशञ्न श-साहित्य का जितना महत्त्व है. उतना ही जैनेतर ग्रपश्नश साहित्य का । जनेतर अपश्रश साहित्य की कुछ महत्त्वपूर्णा पुस्तकें म० म० पं० हरप्रसाद शास्त्री के प्रयत्न से प्रकाशित हुई हैं। बौद्ध सिद्धों के पद और दोहं का एक संग्रह “बौद्ध गान ओर दोहा” नाम से प्रकाशित সা ই। विद्यापति की कीतिलता' का प्रकाशन आदिकालीन साहित्य के विवेचन में एक महत्त्वपूर्ण _घटना है। इन दोनों पुस्तकों की भाषा अ्रपश्र श ही है। कीतिलता की भाषा में मेथिली का मिश्रण है । जनेतर साहित्य की दो স্সন্য महत्त्वपूर्णा पुस्तकें 'ढोला न चत পাল পপ, পপর न १--पउमचरिउ (रामायण) रिट्ठणोमि चरिउ, पंचमी चरिउ, हरिवंश पुराण (महाभारत) एवं स्वयंमूच्छन्द । २-तिसदिठिमहापुरिसगुणालंकार (तरिसष्ठि महापुरुष गुणालकार), णायकुमार चरिउ (नागकुमारचरित), जसहरिचरिउ (यशोधर चरित) २--भविषयक्तकहा




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