गाथा सप्त शती | Gathasapthshti
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
530
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स गाथा सप्तडती
कह दिया यया है कि “ललित मधुराक्षर युवतिजनप्रिय तथा झंगार से श्रोत-प्रोत
आकृत काव्य के होते हुए भी संस्कृत काव्य पढ़ ही कौन सकता है! प्राकृत के ही
कवियों ন अपने घर में बैठकर प्राकृत के गीत नहीं गाये, उसका जादू संस्कृत के
युरन्वर श्राचार्यो श्रीर कवियों के सिर पर भी चढ़कर वोला है । राजश्ेखर ने संस्कृत
के बन्धों को पुरुप शौर प्राकृत के वनन््वों को सुकुमार अनुभव करते हुए उनमें
(सुक्रुमारता की दृष्टि से) उतना ही अन्तर पाया जितना पुरुष और स्त्री में” तथा
श्रार्यास्नप्तशतीकार गोवर्वेनाचायं ने प्रकारान्तर से खेद प्रकट किया कि उन्होंने
प्रक्तोचित रस (श्ृंगार) को वलात् संस्कृत में व्यक्त करने का प्रयत्व किया है ।
यह आइचय् की वात है कि जिस भाषा में कोमल पदों का ভলথা কমান হী
जिससे मधुर व्यंजनों को चुन-चुन कर निकाल दिया गया हो--वह कविता-कामिनी
की कोमलतम मधुर ख्यद्धारिक भावनाओ्रों की श्रभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त समझी
जाय । प्राकृत भाषा में टवर्ग और संयुक्ताक्षरों की भरमार है जो शज्भार में श्रावेय
विशिष्ट ग्रुण माधूर्य के विरुद्ध पड़ती है । याथासप्तशती से ही एक उदाहरण लीजिये
श्रौर उसकी संस्कृतच्छाया से भी तुलना कीजिये तो यह वात स्पष्ट सामने आरा
जायेगी :---
गाया: श्रण्णह् ण तीरइ च्िग्र परिवड्ढन्तगस्प्रं पिश्रश्रमस्स।
मरणविणोएण विणा विरमाएडं विरहदुक्खम् ॥।
सस्त छाया : शरन्यथा न इक्यत एव परिवर्वमानगु रकं प्रियतमस्य ।
मरणयिनोदेन बिना चिरमयित् विरहदुःखम् ॥
प्राकृत ने अन्यथा का अण्णह और “विनोदेन का “विणोएणः वन्ताकर
माधुर्य खोया है या पाया है इसका सही अनुमान साधारण पाठक भी कर सकता है
फिर भी गतानुगतिको लोकः के अनुसार भेड़ाचाल को श्रपनाने वालों के लिये क्या
कहा जाय । श्राबुनिक युग में भी प्राकंत के माधुर्य॑ं की वकालत करने वाले मिल ही
जाते हैँ । श्री पं० कृष्णविहारी मिश्र का तक देखिये । उनका कथन है कि संस्कृतं
में मीलितवर्णो का प्रचुरता से प्रयोग किया जाता है। प्राकृत में यह वात बचाने की
चेप्टा की गई है। प्राहृत संस्कृत की अपेक्षा कर्ण मघुर है। यद्यपि पाण्डित्य प्रभाव
से संस्कृत में प्राकृत की अपेक्षा कविता विशेष हुईं है, पर प्राकृत की कोमलता उस
समय নী स्वीकृत थी, जिस समय संस्कृत में कविता होती थी ।
२. लहिए महरवखरप जुबर छयदल्लदे सर्सेनारे ।
सन्ते पाम्थकब्वे को सवरुद सबकर्श पद्िउन ॥ (वज्चालसां)
२, परता सक्कथ्रटन्पा पाञ्छ्रवन्यो वि दषु ভুওলাতী |
पुस्स मरिलाय जेत्तिप्रमिहन्तरं तेतचियमिमाणम ॥ (कपू नउ)
बाणों प्रकृत ससुचितरसा बलेनेव संरकर्त नीता | थार्यासप्तशती #/9२
« देव और डिणरी 1, पृष्ठ २० এ
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