पारंपरिक भारतीय रंगमंच | Paaramparik Bhaaratiiy Rangamanch

Paaramparik Bhaaratiiy Rangamanch by कपिला वात्स्यायन - Kapila Vatsyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परिचय भारत की श्रदर्शनकारी कलाओं की चर्चा के साथ ही बहुभुजी दुर्गा की प्रतिमा का स्मरण आता है या नटराज-रूप शिव का जो संहारक होने के साथ साथ तांडव नृत्य के नाना रूपों के शाश्वत सृष्टा भी हैं । मूर्त रूप में ये प्रतीक एक स्तर पर बहुविध रूपों में एक साम्य एक आसवन केंद्र का बो ध कराते हैं तो अन्य स्तर पर इन बहुविध रूपों में शक्ति और लय की अविच्छिन्न धारा का । ये दोनों ही पक्ष एक दूसरे से संबद्ध और एक दूसरे पर आश्रित हैं । अनेक भुजाओं और हाथों की भांति हो कला के विभिन्न रूप एक दूसरे से भिन्न और पृथक होते हुए भी एक ही शरीर के अंग हैं । प्रत्यक्षता भिन्नना और अनेकता के मूल में तांडव के ही विभिन्न रूप हैं । यह सही है कि भारत में कलाओं की विशेषत प्रदर्शनकारी कलाओं की किसी एकरूप परंपरा की कल्पना असंभव है क्योंकि ये कलाएं शाब्दिक संप्रेषण पर आश्रित हैं भी और नहीं भी । भारत के विशाल भौगोलिक क्षेत्र में प्रदर्शनीय कलाओं की एक नहीं अनेक परंपराएं हैं । सभी में विधाओं रूपों शैलियों और विधियों की बहुलता है । समकालीन परिट्श्य भी ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य प्रदर्शनकारी कलाओं की भांति भारत की प्रदर्शनकारी कलाओं को सुस्पष्ट पृथक श्रेणियों में विभाजित किया जा सके और उन्हें शास्रीय तथा लोक कलाओं परिष्कृत स्वनिष्ठ वैयक्तिक कला-सृजन और सामूहिक सहभागिता और शब्द संगीत या भंगिप्ना या गति पर आधारित कथित नाटक की संज्ञा दी जा सके । न ही उन्हें ओपेरा ओपरेटा सिम्फनी या चैम्बर आर्केस्ट्रा जैसी सुनिर्धारित श्रेणियों में रखा जा सकता है । इसके अतिरिक्त वह श्रेणी-पृथकता जो 20वीं शताब्दी के पूर्व तक पाश्चात्य कलारूपों की महत्वपूर्ण विशेषता रही है भारत में अति प्राचीन काल से ही लुप्त रही है । परंतु इन जटिलताओं और एक प्रकार की प्रत्यक्ष चिरंतन समयहीनता के होते हुए भी इस उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में और समाज के विभिन्न वर्गों में प्रचलित इन परंपराओं को समीप से देखने पर विदित होगा कि इनमें से प्रत्येक को कलात्मक रूप और शैली के कालगत संदर्भों में और साथ ही उनके सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के संदर्भ में भी स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है । समकालीन प्रतीत होने वाले किसी कलारूप में विभिन्न कालखंडों की छाप पहचानी जा सकती है । प्रदर्शनकारी कलाओं की परंपराओं का विकास जिस सांस्कृतिक ढांचे में हुआ उसकी यह विशेषता एक अत्यधिक अमूर्त कार्यविधि का परिचय देती है - ऐसी अमूर्त कार्यविधि का जो एक ओर इन कलारू्पों की आत्मा का दिशा निर्देश करती है और उन्हें एक मूलभूत एकता या अविच्छिन्नता तथा शाश्वता के सूत्र में बांधती है तो दूसरी ओर परिवर्तन और निरंतर प्रवाह के लिए आवश्यक उनकी अनेकता मूर्तता और वैभिन्य तथा समसामयिकता की भी समान शक्ति से रक्षा करती है ।




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