अर्थशास्त्रप्रवेशिका | Arthashastrapraveshika

Arthashastrapraveshika by गणेशदत्त पाठक - Ganeshadatt Pathak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९ ) ह । प्रत्येक व्यापार इस देश से उठ गया है । ऐसी खिति में अनेक साग विलास की खामग्री जे विदेश से आती है उसे इस देश के छाग आँख मद कर लेते हैं और व्यथे इस देश का धन नाश करते हैं | खाद्य द्रव्य ही में देखिए, हज़ारों चस्तु आती ই | জমা जञा जाग उन वस्तुओं के नहों लेते उनका जीना नहीं ह सकता ? फिर व्यथ अप्रयाज़नीय दृव्य छेकर अपने देश का धन नए करना, अपने देश के छेागे के उचित नहीं है। वही द्रव्य देश में रहने से अगे अनेक कार्यां म उप्यामी हा सक्ता है । आवश्यकता मलुप्य की इच्छा और आवश्यकता असंख्य और अनेक प्रकार की हैं परन्तु वे सब एक सीमा के सीतर की ही बहुधा होती हैँ रोर उन की पूति भो हा सकती है । असखभ्यावस्या मै मचुष्य की आवश्यकता बहुत थेाडो हवी है । सभ्यता के साथ साथ उस की आवश्यकताओं की भी वृद्धि होती है। पहले जितनी चस्तु उसे पराप्त हाती थी उसे परिमाण म अधिक ही नदीं वह प्रकार में सी अधिक चाहने कूगता है। उसकी मानसिक शक्ति की बृद्धि के साथ साथ লই লই इच्छायं उत्पन्न हाती है । यदि पटे ` बह कन्द्‌ मूलही खाकर अपनी पालना कर छेता था ते अब उसे पका हुआ अज्न चाहना पड़ता है, आग बनानी पड़ती दै । बहुत दिन तक एकही प्रकार का अन्न खाते खाते उसे कई प्रकार के अज्ञ खाने की इच्छा होती है। उसकी भूख भी एक सीमावद्ध है। इसलिए उसे अधिक ते खाही नहीं सकता तंब वह दूसरों के! खिलाने की इच्छा करता है। यह हुईं खाने की बात । इसी प्रकार और बातों से भी उसकी ऐेसीही इच्छा हेती है। और वद




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