जिनवरस्य नयचक्रम | Jinavarasya Nayachakram
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
188
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल - Dr. Hukamchand Bharill
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जिनवरस्य नयचक्रम्
नयज्ञान की आवश्यकता
जिनागम के मर्म को समभने के लिए नयों का स्वरूप समभना
झ्रावश्यक ही नहीं, भ्रनिवार्य है; क्योंकि समस्त जिनागम नयों की भाषा
में ही निबद्ध है। नयों को समभे बिना जिनागम का मर्म जान पाना तो
बहुत दूर, उसमें प्रवेश भी संभव नहीं है ।
जिनागम के श्रम्यास (पठन-पाठन) में सम्पूणं जीवन लगा देने
वाले विद्वज्जन भी नयो के सम्यक् प्रयोग से प्रपरिचित होने के कारण
जब जिनागम के मरमं तकं नहीं पहुंच पाते तब सामन्यजन की तो बात ही
क्या करना ?
धवला' में कहा है :-
“सत्थ जर्ह बिहूणां सुत्त प्रत्योग्व जितवरमदम्हि।
तो शयवादे शिडणा भुखिरो सिवृ्षतिया होति ।॥
जिनेन्द्र भगवान के मत में नयवादके बिना सूत्र और भर्थ कुछ
भी नहीं कहा गया है। इसलिए जो मुनि नयवाद में निपुण होते हैं, वे
सच्चे सिद्धान्त के ज्ञाता समभने चाहिए ।”
'द्ृब्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' में भी कहा है :-
“जे एयदिद्िविहीणा ताण श ॒वस्थसहावउबलसि ।
वत्युसहावविहूणा सम्भाविहौ कहं हुति ।११८९१॥
जो व्यक्तिं नयदष्टि से विहीन है, उन्हें वस्तुस्वरूप का सही ज्ञान
नहीं हो सकता। और वस्तु के स्वरूप को नहीं जानने वाले सम्यग्दृष्टि कैसे
हो सक्ते है?
+ धल पु° ९, खण्ड १, जाग १, बाधा ६८ [जंमेनदर सिद्धत्तकोश भाग २, पृष्ठ ५१८ |
User Reviews
No Reviews | Add Yours...