सम्पदा | Sampada
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
282
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बिदेन में ( छोटे खेतों सहित ) २८.५,
डेनमार्क ( छोटे खेतों सहित ) ३४.४,
फ्रांस सें २०.५,
- जमंत्री में २६.१,
ˆ स्विटजरलेंड में ३४७,९ और
जापान में जहां के खेत हमारे खेतों से भी छोट है--
और एक परिवार के लिए औसतन श्राधा एकड हो पडते
ই का उत्पादन २२.६ किवटल प्रति हेक्टर याने
अमेरिका से दुयुना और रूस से ढाई गुना हे । इसी
प्रकार -धान की उपज जापान में प्रति देक्टर ४८. क्विंटल
है, जबकि अमेरिका सें २८.३ और रूस में २१.४ है ।
इन अछ्लों की उपेक्षा नहीं की जा सकती ।
सा हिक्र खेती से कम उपज
इसी प्रकार उन देशों की चर्चा कर देना भी आवब-
श्यक प्रतीत द्वोता है, जिनका विचार है कि सामूहिक फार्मो
में निजी छोटे खेतों की अपेक्षा श्रधिक उपज होती है।
इसके लिए साम्यबादी देशों से अच्छा उदाहरण दिया ही
नहीं जा सकता, जो कि गत ३०-४० धर्षों से इस दिशा
से प्रयत्न करतें चले आ रहे है। यह तो सभी जानते
हैं कि यूमोसलाविया ने अब सामूहिक खेती और यहां
तक कि सहकारी खेती की पद्धति समाप्त कर दी: है । इसके
लिए अप्रैल १६५७ को वहां की संसद ने एक प्रस्ताव
पास किया था। इससे यही प्रकट होता है कि सामूहिक
7 *सेतों से कोई लाभ नदीं रदा, किसानों क हितों को
हानि पती रदी तथा उपज में भी कमी होती गड 1
इसलिए व वहां “समाजवादी सहकारिता, स्थापित
की जा रही है। इसके अनुसार किसान अपने निजी
खेतों में खेती करेंगे तथा सहकारी समितियां कृषि यंत्रों
ओर क्ृषपि-उपज की बिक्री का प्रबन्ध करेंगी। इस प्रकार
यूगोस्लाविया की साम्यवादी सरकार ने डेनमार्क की
सहकारिता को अपना लिया है, जिससे कि पिछली अर्ध-
शताब्दी तक सारी दुनिया के देश प्रेरणा অন্য करते रहे ¦
इसी प्रकार पोलेंड में कई सामूहिक फार्मो का भ्रंत कर
दिया गया है। ट्रैक्टरों के स्टेशन तोड़े जा रहे हैं और ट्रीक्टरों
को वैयकितिक किसानों के हाथ बेचा जा रहा है। अनाजों
का अनिवार्य वितरण खतम कर दिया गया है। सहकारी
अनवरी ° श्म ]
फार्मा को मिली हुईं कर की छूट वापस ले ली गई है, जिससे
निजी और सामूहिक पद्धत्तियों में उचित स्पर्धा हो सके।
सन् १६५ मे वहां के वड साम्यवादी नेता श्री गोमुल्का ने
कहा था “निजी किसानों की उपज सामूहिक फार्मा की
अपेक्षा १६.७ और सहकारी फार्मो की अपेक्षा ३२,७ प्रति-
शत अधिक है ।” मई ?४७ को फिर श्री गोमुल्का ने कह्दा
कि “किसानो की स्वायत्तता पुनः. स्थापित करमे का समय श्या
खुका है ।”” इससे उनका तात्पर्य किसानों का भूमि पर
निजी स्वामित्व स्थापित करना ही था ।
क्ृष्णप्पा और पाटिल का प्रतिवेदन
हमारे दो प्रतिनिधि-संडल एक सरकारी और दूसरा
अर्ध सरकारी चीन की कृषि पद्धति का अध्ययन करने के
लिए गये थे । इन दोनों के प्रतिवेदनों का अध्ययन करके
मैं इस नतीजे पर पहुँचा हैँ कि इनके तथ्य विवादास्पद हैं ।
साक्षियां भी विवादास्पद है, इसलिए हमारे लिए संभव
नहीं कि हम पाटिल मंडल के प्रतिरेदन और इसके धत्प
मत के प्रतिवेदन की जांच कर सकें, क्योंकि हमारे पास कोई
संबंधित तथ्य नहीं है । लेकिन एक बात, पादिल और
कृष्णप्पा दोनों के प्रतिवेदनों से स्पष्ट है कि चीन में कृषि-
उपज में जो बृद्धि हुदै है, बह सहकारी खेती के कारण
नहीं हुईं है। यह केवल हसी कारण से हुईं है कि चीन
की सरकार ने हमारी अपेत्ञा कृपि पर अधिक धन का
विनियोग किया और अधिक साधनों का उपयोग किया |
साथ ही यदि खेती का समूहीकरण न किया गया होता तो
उपज में और भी बृद्धि होती ।
ब्रिटेन के सजदूर दल के प्रमुख सदस्य श्री बेव्रिन ने,
जिन्होंने चोन-सरकार के निमंत्रण पर वहां का भ्रमण
किया, २ अप्रैल <७ को दिल्ली की सार्यजनिक सभा में
कहा था “भारत को रूस और चीन जैसी गलती नहीं
करनी चाहिए |” यह उनकी हमें चीन और रूस की कृषि
पद्धतियों के अपनाने के विरुद्ध चेतावनी थी । अपने भाषण
में श्री बेवन ने बतलाया कि “भारत के पास परीक्षण
करने के लिए. रूस की भांति फालतू जमीन नहीं है।
परीक्षणों में असफलता इसके लिए मंहगी पडेगी । सामूद्दिक
खेती, यंत्रीफरण और केन्द्रीय नियंत्रणके परीक्षण रुस में
भी असफल हुए है। रूस के आम चेत्रों में असंतोष फैल
[২ ক
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