सूर मीमांसा | Soor-Meemansa

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Soor-Meemansa by ब्रजेश्वर वर्मा - Brajeshwar Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ত্র सूर-मीमांसा जिसने जनता को जीवन के लिये एक साथक उद्देश्य प्रदान किया था | परन्तु यह तो परोक्ष रूप और अज्ञात ढंग से हआ। नेतिक पतन से आत्म-रक्षा के लिये हिन्द्शों ने कुछ तात्कालिक ओर व्यावहारिक उपाय मी क्रिषु थे] वस्तुतः ये उपाय उन्हें स्वभावतः ही सूक गए क्योंकि वे उनकी परम्परागत प्रवृत्ति के अनुकूल थे। इन उपायों को हम असहयोग' का नाम दे सकते हैं | किन्तु यह असहयोग नोति तिरस्कार और घृणा पर आधारित थी। शासक होते हुए मा मुसलमानों को म्लेच्छं कह कर अस्प्ृश्य घोषित किया गया था । वस्तुतः इस नीति का बहत बड़ा उत्तर- दायित्व स्वयं मुसलमानों की उस मनोदव्ति पर है जिसके अनुसार वे अपने को ही धामिक और विश्वासी समझ कर अन्य घममावलंबियों को अधर्मी ओर अविश्वासी कहते थे तथा उस समय तक उनसे नहीं मिल सकते थे जब तक कि वे मुसलमान न हो जाएँ। उन्होंने ही भारत के निवासियों को, जो विविध धम-सतों के अनुयायी ओर विविध जातियों में संगठित थे, एक व्यापक हिन्दू! नाम दिया और उसका श्रं लगभग उसी प्रकार का किया जिस प्रकार का म्लेच्छ” का अ्थ किया गया था। हिन्दुओं ने मुसलमानों की अलग रहने की भनोब्ृत्ति को इस सीमा तक अपनाया कि उनके समाज में कोई सम्मिलित ही नहीं हो सकता था। जो एक बार किसी कारण, अनजान में, भत्र ग्रथवा प्रलोमया भूल से बाहर निकल गया वह कभी वापस नहीं लिया जा सकता था । श्रात्म- सत्ता के इन संकाचनशील उपायां क्रे फलस्वरूप स्वयं हिन्दुश्रों की बहु- जातिगत विश्वृंखलता तथा उसके छुआछूत, खान-पान, शादी-विवाह संबंधी नियमों की कठोरता और भी श्रधिक बढ़ ग




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