संस्कृत -प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा | Sansprakrit-prakrit Jain vyakaran Aur Kosh Ki Parampra

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Sansprakrit-prakrit Jain vyakaran Aur Kosh Ki Parampra by विभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तुति जआाचायंबर श्री कालूभणी की स्मृति उस अकाशपुज को स्थृत्ति है, जिश्कों रश्मियो से असब्य थोभों का जीवन-पथ प्रकाशित हआ है। उन्होंने समभ्र जीवन में विद्या की आराधना की । उत्तको आराघधन।केवल स्वभुखी नही थी, किच्छु उभव- मुखी थी। दूस रो के लिए भी उत्तका अनुदान बहुत भहप्वहण है। भनुण्य-र्वभाष उनके ऋण को स्वीकारत। है, जिसे कुछ अनुदान मिलता है। हम सच आजायंबर के ऋणी है । +८थी अदमी उकण होने का भी प्रयत्त करत। है। अभभ-वाणी है कि भुरु, भाता-पित्ता और स्वामी के ऋण से उन्ण होना सरल काम नही है। हम नध्ण से २६५ हो लकं या नही, वह्‌ विपा करणीय नही है। करणीय थह है कि हम उनधण होने का भ्रयत्त करे | यद्‌ भरथत्तं ही सही दिशा क सुचनहै। आचायबर की जन्मशप्ती पर चतुविव घम-सघने शतक्तत।६० भाव से उनके चरणो में विनम्र श्रद्धाजलि समपित करने का सकलप किया है। उस सकर के विभिन्न रूपी में एक रूप है यह सभृति-ग्रन्थ । इस सभ ति-ग्रन्थ को परिकल्पना और प्रकल्पना चालू परिपाटी से भिन्न है। इसमे उत्तके जीवन के विषय में विशद वर्णन नी है और विविध विपषयो पर लेख आभ्निर्त नही किए गए हैं। थह ग्रथ पुरुतकालथ फा शोभा-प्रन्थ न बचे, किन्तु उपयोगी ग्रथ बने, ४स दृष्टि से यह एक निश्चित सीमा में बधा हुआ ग्रन्थ है । इसमे विषयो क। विशेषीकरण है और इस विशेषीक रण के आध।र १९ ही इसमे लेख आमत्ित किए गए है। इस योजन। से এই সখ जन पर+भपरा में निमित व्याकरण और शब्दकोश कं सदन ग्रन्थ बन 1५ है। मोचायबव ९ के जीवन-चृत्त क। एक स्वतन्त ग्रन्थ है । ॥६।>णलि और स्मरण एक पुरुतक में सकलित है । उनके शिष्यो तथा प्रशख्षको 61९1 उनकी प्रशस्ति मे लिखित सरक्षत कॉन्य-किन्यकुसुम।णज लि के रूप में एक पुस्तक में सकलित है। ये तीनो ५५ स्शूति-प्रन्थ से यु ६५ नही है, किष स्व॑त॑न है । साध।रण पाठको के लिए




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