कर्ममीमांसादर्शन भाग - 2 | Karmamimansadarshan Bhag - 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
190
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संस्कार पाद । १५६
সি
साथ जो नये प्रकारके सस्कार उत्पन्न होते हैं, वे ही अखाभाविक
संस्कार कहाते है ओर म्रल प्रकरतिके विरुद्ध तथा मनुष्य प्रकृति
के द्वारा बलपूर्वक संग्रहीत ये नये प्रकारझे अस्वाभाविक संस्कार
नये नये जाति-आखु सोग उत्पन्न करते है । इसीसे जीव बन्धन दशाको
प्राप्त होकर आवागमन चक्रमे परिप्रमण करता रहता है ॥ ६ ॥
स्वाभाविक सस्कारकी विशेष महिमा कहीं जाती हः-
खाभाविक संस्कारसे त्रिव्रिष शुद्धि होती है ॥ ७॥
इस दर्शन विज्ञानके रब्यका लक्षिन करानेके अभिप्रायसे
पृज्यपाद महर्षि खूचकार कहते है कि, स्वाभाविक संस्कार अद्वेत
भावापन्न, एकरल होता हुआ वह शअध्याग्मजुद्धि, अ्धिदेवशुद्धि
ओऔर अधिभृतशुद्धि रूपी त्रिविध शुद्धिप्रद हैं। त्रिविध शुद्धिप्रद
तत्त्व श्रवश्य ही मुक्तिपद हुआ करता है क्योकि त्रिविध शुद्धि
क्रमशः स्वतः ही स्वम्यरूपम पहुंचा दिया करती है । इस विज्ञान-
को इस प्रकारस भी समझ सकते हैं कि, खासाविक संस्कारके
हारा जीवकी क्रमान्नति आर अन््तमे मुक्ति अवश्य सम्मावी
होनके कारण उसमें अध्यात्मशुद्धि, अधिदृवशुद्धि आर अधिभूत
शुद्धि तीनोका नियमित होते रहना स्वभावखिद्ध है। स्म्तिशाखमे
भी कहा हैः--
स्वभाविका हि संम्फार स्वचा युद्धि प्रयच्छुति ।
स्वाभाविक सम्कारस त्रिविच्र शुद्धि होती है ॥ ৩ ॥
जिविध शुद्धिके प्रसझल उसकी विशेषता कही जाती हैः--
अद्वितीय होनेपर भी उसका प्रकाश पोड़शकलाओं में
होता है ॥ ८ ॥
जिस प्रकार चन्द्रमा प्रतिपदास लकर पूरिमापय्येन्त एक एक
कलाके क्रम विक्राशके दारा अन्तम पोड़शकलासे पूर्ण हो जाता है,
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उसी उदाहरणके अनुसार यह समभना उचित है कि, स्वाभाविक
त्रिविधशुड्िरायात ॥ ७॥
एकस्यापि पोइशक्लाप्रकाशः ॥ ८ ॥
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