ऋग्वेद | rigved
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
90 MB
कुल पष्ठ :
607
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)४ 1
ऋग्वेद: मं० १। ध+ १। यू० ५, ६४ &
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¦ प्रष्ठी. अकार ने करेगा, तंव तक तुम;
ध ब्रॉप्ति कभी मे होगी, इस से तु परोपकार करने बाला सदा
হী) * । |
शत काम के भारत करते वालि जी को आशीर्वाद कैत ইলা है, इत कात का
अकांदा आते मरते में किया है---
आ त्वां विधन्त्वाप्वः सोमांस इन्द्र गिवेणः । शन्तें सन्तु प्रचेंतसे ॥७
यथार्थ -- ड धामिक ( নিয়া: ) प्रशसा के योग्य कर्म करने वाले ( इन
दिद्वन जीव ! ( आशब' ) तेशादि गुणा सहित सब क्रियाभ्ो से व्याप्न ( सोमास
सब पदार्थ ( हढा ) ठुक की ( লা ) प्राप्त हा, तथा हन पदार्थो को प्राप्त हुए
( মা) দু शास बते ( ते ) तेरे ( षम् ) ये सब पदार्थं मेरे अभनुग्रह से
सुख करे भालं { भ्त ) ही ॥ ७ 1)
आषायथे-- ईश्वर ऐसे ৬ को प्राशीर्याद देता है कि जो भनुष्य विषान्,
परोपकारी होकर सरी प्रकार उद्योग करके हन समर पदार्थो मे उपकार ग्रहण
करके सब प्राणियों को सुखबुक्त करता है, वही सदा धुख को प्राप्त होता है, भ्रन्य
कोई नहीं 1 ७ ५
थर मे खक अर्य के ही प्रकाश करने चाले इ प्राम्य का आगे सन््त्र मे भी
जब्तश किया है--
श॑तक्रतो ৯ নি
स्वां स्तोभ ववीदृभन् त्वासुक्था शतक्रतो । त्वां ब॑धन्तु नो गिरः ॥८
পার্থ--ই ( হালক্ষতী 1 অজধতাল कर्मों के करने श्रौर अनन्त विज्ञान के
जानने वाले परमेश्वर । जैसे ( हतोभाः ) वेद के स्तोष् तथा ( उक्था ) प्रशमनीय
स््तोध भाषकों ( अीवुध्म् ) भश्यस्त प्रसिद्ध करते हैं, वैसे ही ( न' ) हमारी (गिर )
विद्या प्ौर सत्यन्भाषणयुक्त वाणी भी ( त्याम ) झापको ( बर्षन्तु ) प्रकाशित
करें ॥ ८ ॥
छा आजार्थ--- जो विश्व मे पृथ्चिवी, सूथ्यं भादि प्रत्यक्ष श्रौर अ्रप्रत्यक्ष रचे हए पदार्थ
हैं, वे संब जेगत् की उत्पत्ति कश्ते बालें तथा धन्यवाद देते के योग्य परमण्बर ही
को प्रसिद्ध करके जनाते हैं कि जिस से न्याय भर उपकार श्रादि ईश्वर के गुण को
भच्छी प्रकार जानके चिद्ान् भी वैसे ही कर्मों मे प्रवृत्त हो ॥ ८॥।
धहू जगदीश्धर हमारे लिए क्या करे, सो अगले ससत्र में वर्शन किया है---
अक्षिंतोतिः सनेदिम वाजमिन्द्र : सहसिण॑म्। यस्मिन् विश्वानि पोंस्था ॥९
प्रदाघं---जों ( अक्षितोतिः ) नित्य জাল জালা (ছু ) सब ऐश्वर्य्य युक्त
वस्मेश्वर है, वह एप कर्के मारे लिश ( यस्मिन ) जिस व्यवहार में ( घिश्यानि )
सब ( पौस्था ) पृरषाथं ते गूक्त यल है (इमम् ) एम ( सहल्िराम् ) प्रसख्याल सूख
चैते वामे ( अजब ) पदार्थों के विज्ञान को ( सनेत्् ) सम्यक सेवन कराये कि जिससे
हम लॉग उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त ही ॥ ६ ॥
भावार्त्र--जिस की सत्ता मे ससार के पदार्थ बलबान् होकर भ्रपने-प्रपने व्यष-
हारो में वर्तमान हैं, उन रब बल आदि मृणा से उपकार लेकर विश्य के नाना प्रकार
के सुख भोगते के लिए हमसे लोग पूरा पुरुषार्थ करें, तथा ईश्वर इस प्रयोजन' में हमारा
संहाय करे, इसलिए हम लोग ऐसी प्रार्थना करते है॥ ६ ॥
किस की रक्षा से पुरुषार्थं सिद्ध होला है, हस विषम का प्रकाश ईइवर ने अगले
अश्वम कपा है--
मा नो मत्तौ अभिद्र तनलामिनद्रगिवेणः । ईशानो यवा वेधम् ॥१०
पाथ हि ( पिष ) वेद बा उसम-उत्तम शिक्षाशरों से सिद्ध की हुई बाणियों
के द्वारा सेवा = सोग्य सवंगक्तिमान् (इनत) स के रक्षक ( ईशान ) परमेश्वर !
भराय {चः} हमारे ( तशरूलाम् ) प्ररीरो का ( वधम्) माश, दोप सहति (मा)
कमी मते ( पप ) कीजिए तथा भापके ठषदेश स ( मर्ताः ) यै सब्र मनुष्य लोग
भी ( ने; ) हम से ( साभिट््ह् ) बेर कभी ले करें ॥ १०॥
भाषार्थ -- कोई मनुष्य प्रन्याय से किसी प्रासी को मारने की इच्छा न करें,
তা पत्र मित्र भाव से वर्त्तें, क्योकि जैसे परमेश्वर विना भ्रपराध के किसी
का नही करता, वैसे ही मब मनुष्यों को भी करना चाहिए ॥ १०॥
इस पर्चम धुक्त की विद्या से मनुष्यों को किस प्रकार पुरुषाथ भौर सब का
उपकार करना जाहिए इस विषय के कहने से घोधे सूक्त के भ्र्थय के साध इसकी सद्भति'
जानती चाहिए ।
यह पांच सूक्त भौर दर्ता बं समाप्त हुभा ॥
9
क्षत्र एशरर्दत्य धब्ात्य सृक्तस्य मुच्छादा ऋषि:। १-३ इस; ४, ६, ५, €
, शष्तः; ४, ७ सरत इसाइश; १० इसादश्र देवता: । १, २, ५०-०७ ६, १०
पादी; २ मिशडगायत्री; ४, ४ नि्दएसत्री ज छत्दः । प्रश्जः स्वर: ॥
' झंडे सूक्त प्रथन भतम म यथायो कार्य्यों में किस प्रशार से किन-किंग
, पाथो को भूषत करता चाहिए, इंस विधय का उपदेशा किग्रा है---
ঘুজলি भ्रपरयतषं चरनं परि तस्युषः ! रोचन्ते रोधना दि ॥ १ ॥
| 1 আআ মধু ( सत्वभ् ) भज़-सज में व्याप्त होने वाले हिसारहित
॥
186 4| ५ ॥ ५ | + तं ४
11111111 11 11111010
स ভু को कर्ने ( श्ररन्सम् ) सब जगत् को जायने वा सव म ब्याप्न ( परितस्थुषः)
सज भनुष्यं ब्रा स्थावर जङ्कम पद्यं श्रौर चराचर अगत् मै ष् हो रहा है ( ष्मम् )
उस भहान् परमेश्वर को उप्राश्ता योग द्वारा प्राप्स होते हैं, वे ( दिथि ) प्रकाशरूप
परमेश्वर गौर बाहर सूयं वा पवन के दीच मे ( शेक्षसाः ) शान से प्रकाशमान होके
( रोचस्ते ) प्राननद में प्रकाशित द्वोते हैं ।
वथा शौ मनुष्य ( अस् } जह्य देशा मे रूप का प्रकाश करने तथा धग्नि
रूप होने से लाल णुत ( जर्म्तम् ) सवत्र गमन करने बलि ( श्रष्नम् ) महान्
কৃতী भौर झरित' को विद्या में ( परिधुम्णन्ति ) सब अ्फार से युक्त करते हैं,
वे जैसे (दिवि) पूर््यादि के गुणो के प्रकाण में पदार्थ प्रकाशित होते है, (না)
तेजस्वी होके ( আনি ) नित्य उत्तम-उत्तम आमन्द से प्रकाशित हीते हैं॥ १ ॥
आवाध -- जो लोग शिद्या-मम्पादन में निरन्तर उद्योग करने ते होति है, वै
ही सब सुखा को प्राप्त होते हैं। इसलिए को उचित है कि पृथिवी पादि
पदार्थों से उपयोग लेकर सब प्राणियां को लाभ ৯৬ कि जिस से उनको भी सम्पूर्ण
सुख मिर्से ॥ १॥
उक्त सुर मौर प्रग्नि आदि के कैसे गुण हैं, ओर वे कहाँ-कहाँ उपसुक्त करने पोग्य
हैं, तो अगले मस्त्र में उपयेश किया है----
युखन्त्य॑स्य कम्य हरी विपंक्षसा रथें। शोणां धृष्णू तवाहसा ॥२॥
पदार्थ -जी धिद्रान् ( अम्य) पू मौर प्रग्ति के ( काम्या ) सब के इच्छा
करने योग्य ( छ्ोखा ) भपने-अपने बर्सा के प्रकाश करनेहारे वा गसन के हेनु( भूषण
दृढ ( विपक्षसा ) ब्िविध कला झ्रौर जल के श्र घूमने वाले पखिरूप यम्धी से गे
( सूवाहसा ) अ्रष्छी प्रकार सवा(रिया में जुड़े हुए गनुप्यादकों का देश दशान्तर में
पहुँचाने वाले ( हरी ) आकर्षश और वेग वेथा शुक्लपक्ष और कृप्णपक्ष रूप ছা ঘা
সিন উ হারা हरणा किया जाता है, इत्यादि श्रेष्ठ गुणों को प्रथियी, जल प्रीर
प्राकाश দ নালশ্মাল के लिए प्रयसे-प्रपने रथो से ( युञ्जन्ति) जाह ।। २॥
भाजार्थ - ईएवर उपदेश करता है कि--मनुष्य लोग जब तक भू, जल आदि
पदार्थों के गूरा, शान और उन के उपकार से भू, जल झौर গাধা में जाने-भाते के
লিল भ्रच्छो सवारियों को नहीं बताते, तब तक उनको उनम राज्य भौर धन সাহি
उत्तम सुख नही मिल नक्ते । २॥
जिसने ससार के सव पडाथं उत्पम्न किये है, बह कंसा है, यह बात अगले
मस्तर्भे प्रकारितकीहे -
केतूं कृण्वस्नकितवे पेशों मर्य्या अपेश्स । समुषद्धिरजायथाः ॥ ३ ॥
वदां - (सर्प्या) ह मनुष्य लोगो । जो परगाप्मा ( अकेतवे ) ब्रज्ञानसूपी
प्रन्धकार के विनाश के निए ( केतुम् ) उत्तम ज्ञान, शभ्रौर ( अपेशलसे ) निर्भनता
दारिद्रिय तथा कुरूपला विनाश को लिए ( पेश. ) सुवणं ग्राहि धन भौर श्रेष्ठ रुप को
( क्ृष्वसू ) उत्पन्न्ध करता हैं, उसको तथा सब विद्याओं 41 ( समुषद्धि, ) जो ईश्वर
की आ्राज्ञा के अनुकूल बलंते वाले है उतस मिल-मिलकर ज़ानके ( अज्ञायथा )
प्रमिद्ध हुजिण । तथो ह जानने की रुच्छा करने वाले मनुष्य ' तू भी उस परमेश्वर
के सप्रागम से ( अजायथा' ) इस विद्या को वथागत् प्राप्त हूं! ॥ ३ ॥
भावार्थ - मनुष्यों का प्रति राति फं चौथे प्रहर में झालरय छोद्रकर फरती से
उठकर प्रज्ञान और दरिद्रता के विनाश के लिए प्रयत्न वाले होन रु तथा परमेश्वर के
जान और ससारी पदार्थों स उपकार लेने के लिए उत्तम उपाय सदा करता
चाहिए ॥ ३ ||
अगले भस्त्र में वायु के कर्मों का उपदेश किया है -
१ पुनंग ष रिरि
आदह स्वधामनु पुनंगर्भखमेरिर । दधाना नाम यत्तियम् ॥ ४ ॥
पद्वा्थ-- जेस ( मर्त ) चायु ( लाम ) जसं रौर ( यक्लियम् ) यश्च के योग्य
देण को ( वाना ) सव पदार्थो क) धारण कियिष्ए ( पुन ) फिरपिःः (
जनो में ( पर्भत्वम् ) उनम समूहरूपी गर्भ का ( एरिरे ) सब प्रकार से प्राप्त होत
कपाते, वैसे ( झातू ) उसके उपरान्त वर्षा करत है, ऐसे ही वार-वार जला को
चढ़ाने, तर्षाते है 11 ४ ॥।
भावार्थ--ज 1 जल पर्य वा पश्रग्नि के सयाग से छोटा-छझीटा ६ जाला है, उस
म धारम कर झोर मेघ के आकार का बना के वायु ही उसे फिर-फिर बर्षाता है,
उसीमे सब का पालन और सब को सुख होता है | ४)।
उस पत्सों के साथ सूर्य्म बंया करता है, सो अगले सम्त्र भे उपदेश किया है--
मीढ चिंदारुजत्लुमिर्ृहां चिदिन्द्र वहिंमिः । अविन्द उसरिया अनु ॥५॥
पदार्थ -- ( जित् ) जैसे मनुष्य लोग अपने पास के पदार्थों को उठाते धरते हैं,
( बिल ) बसे ही सूर्य भी ( बीछु ) दृश बल से ( उखियाः ) भपनी किरणों के द्वारा
ससारी पदार्थों को ( अधिन्द' ) प्राप्स होता है, ( अधु ) उसके प्रम॑न्तर य उनको
छेदन करके ( आरेजल्मुभिः ) भङ्गं करने प्रौर { वह्छिभि. ) प्रकाणप्रादि देशों में
पहुँचाने वाले पत्रन के साथ ऊपर नीचे करता हुआ ( गुहा ) प्रस्तरिक्ष पर्थात् पोल
में सदा चढ़ाता-गिराता रहता है' 1 ४॥
आवार्ध --इस मन्त्र मे उपमालझूर है। जैसे बलवान पतस शपने वेग से भारी
भारी दुढ़ बक्षों को तोड-फोड हाजते ह्लौर उनको ऊपर नीचे-गिराने रहते हैं,
बसे ही + भी झपनी किरणों से उनका छेंदन करता रहता है, इस से वे ऊपर-नीचे
गिरते रहते हैं। इसी प्रकार ईपवर के निगम से सब पदार्थ उत्पत्ति भौर विनाश को भी
प्राप्स होते रहते हैं !। ५ ॥
यह ग्यारह गं समाप्त मा ॥।
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