भाग्य - चक्र | Bhaagy Chakra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला दृश्य पहला अडू रे बात भी नहीं पूछते महात्माओं के चरण चूमते हैं । सच पूछो तो संसार ऐसे ही महात्माओं के बल पर खड़ा है । शंकर० -लोग धर्म का सम्मान करते हैं इसमें सन्देह नहीं मगर उसी समय तक जब तक उसके पास पैसे हैं । परन्तु इघर धरम की जेब खाली हुई उधर लोगों की आँखें बदल गई श्पने मेरा अभिप्राय समभा ? शाम०-- मुस्कराकर कहे जाओ । शंकर०--एक दष्टान्त लीजिए । आपके पास चार श्रादमी अच्छे वर पहनकर ओर मोटर में बेठकर आते हैं ओर किसी श्रम या अनाथालय या विद्यालय के लिए दान माँगते हैं । आप पाँच-सात सो रुपया दे देते हैं। मगर जब आपके पास कोई ब्राह्मण नंगे-पाँव नंगे-सिर फटी-पुरानी घोती पहने आता है तो पहले तो महाराज आपके दरबान उसे घर में घुसने नहीं देंगे । ओर फिर अगर उनका दिल ग्ररीब की मिन्नत-समाजत से पिघल गया ओर उन्होंने उसे सेवा में उपस्थित होने का अवसर दे दिया तो भी झाप उसे क्या देंगे ? दो-चार रुपये । ओर वह भी उपेक्षा से। में पूछता हूँ यह क्यों ? माँगने दोनों थे धममे दोनों थे आवश्यकता दोनों की सथी थी । शाम०-- दिलचस्पी लेते हुए ठीक शंकर०--मगर पहले आदमियों को आपने सम्मान भी दिया




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