जनमेजय का नाग - यज्ञ | Janmejay Ka Naag - Yagya
श्रेणी : नाटक/ Drama
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.02 MB
कुल पष्ठ :
128
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about जयशंकर प्रसाद - jayshankar prasad
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहला दृश्य पक सर्वत्र शुद्ध चेतन है जड़ता कहाँ ? यद्द तो एक श्रमास्मक कत्पना है। यदि टुम कहो कि इनका तो नाश होता हैं और चेतन की सदैव रफूर्ति रदती है तो यह भी भ्रम है । सत्ता कभी लुप्त भले ही दे जाय किन्तु उसका नाश नहीं दाता । गूद्द का रूप न रहेगा तो इरटें रहेंगी जिनके मिलने पर गृह बने थे । वह रूप भी परिवर्तित हुआ ता मिट्टी हुई राख हुई परमाणु हुए । उस चेतन के ग्रस्तित्व को सत्ता कहीं नहीं जाती न उसका चेतनमय स्वभाव उससे भिन्न हाता है। वही एक अद्देत है। यहदद पूर्ण सत्य है कि जड़ के रूप में चेतन प्रकाशित होता है। अखिल विश्व एक सम्पूर्ण सत्य है । असत्य का श्रम दूर करना हागा मानवता की घोपणा करनी हागी सबको झपनी समता में ले आना दागा | झाजन--ता फिर यह बताओ कि यहाँ क्या करना होगा । तुम ता सखे न जाने कैसी बातें करते हे जो समभक हो मे नहीं घ्याती छोर समकने पर भी उनको व्यवहार में लाना बहुत हो दुरूदद है। माड़ियो में छिप कर दस्युत्ता करनेवाली और गुंजान जद्डलों मे के समान दौड़ कर छिप जानेवाली इस नाग- जाति को हम किस रीति से झपनी प्रजा बनावें ? थे न तो सामने ाकर लड़ते हैं और न अधोनता दी स्वीकृत करते है अब तुरम्ददी बताओ हम क्या करें। श्रीकृष्ण--पुरुपाथ करो जड़ता दृटाओ । इस चन्य प्रान्त से मानवता का विकास करो जिसमे ्ानन्द फैले । सखष्टि को सफल चनाओ |
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