हिन्दी साहित्य में विविध वाद | Hindi Sahitya Men Vividh Vaad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
43 MB
कुल पष्ठ :
525
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
डॉ प्रेम नारायण शुक्ल का जन्म कानपुर जिले की घाटमपुर तहसील के अंतर्गत ओरिया ग्राम में २ अगस्त, सन १९१४ को हुआ था। पांच वर्ष की आयु में माता का निधन हो गया था, पिता जी श्री नन्द किशोर शुक्ल, वैद्य थे। आपकी सम्पूर्ण शिक्षा -दीक्षा कानपुर में ही हुई। सन १९४१ में आगरा विश्वविद्यालय से एम. ए. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त हुआ थाl इसी वर्ष अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की 'साहित्यरत्न' परीक्षा में भी आपको प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त हुआ। श्री गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा चलाये गए अखबार 'प्रताप' से शुक्लजी ने अपने जीवन की शुरुआत एक लेखक के रूप में की l
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ४9 )
मानव-जीवन के धमस्त व्यापार इसो मन के द्वारा संचालित और निय-
न्नित हते रै | श्रतएव मानव-जीवन की व्याख्या इस्त मन के व्यापार की व्याख्या
है | और इसीलिए लोक में यदि एक मन की भी व्याख्या को जा सके तो
कदाचित् समस्त जगत को व्याख्या हो जायेगी |
मनोव्यापार के दो पक्ष ;--मानव-मन का समस्त व्यापार दो पत्तों
म खष्टतः .विभक्त किया जा सकता है--एक बाह्य पक्ष थ्रोर दूसग ऐकास्तिक
पक्त | पहिली अ्रवस्था में यह उदेति होता है। इस दशा में वह 'स्व' से बाहर
जिस जगत में विचरण करता है वही इसका बाह्य पक्ष है। मन को इसी गांत
के द्वारा मनुष्य का लोक-व्यवहार चलता है। मन के इन व्यापारों में तंकल्प-
विकल्प का इन्द्र भी दिखाई देता है । यदि यह इन्द्र न रहता तो उसकी स्थिति
पशुवत् हुई होती ।
मन ओर अहंता;--अहेता का बोध इस मन का ही व्यापार है ।
अहंता के बोध का आश्रय लेकर ही यह मन बाह्य जगत में विचरण करता है।
अहंता का बोध मनुष्य कोक्रमिक विकास से प्राप्त होता है। शिशु को केवल
शारीरिक आवश्यकताञ्रों का हो बोध होता है। भूख प्यास लगने पर নই হু
लगी है, प्यास लगी है कहते समय जिस “में! को लक्ष्य में रखता हैं वह “मे
केवल शरीर हो होता है। “मैं! की भावात्मक अनुभूति का विकास किशोर
अ्रवस्था से ही प्रास्म्म होता है। इस “अनुभूति” के साथ ही साथ उस समय
भाधुकता की घारा श्रत्यन्त वेगवती होती है। इस काल की परिस्थितियाँ ही
उसके मन की बाह्य श्रथवा आन््तरिक गति निर्धारित करती हैं| जिन बद्नों की
परिस्थितियाँ बाह्य जगत के आकर्षण से श्रधिक श्राकर्षित हो जाती हैं ঈ बच्चे
अपने अन्तर्जगत का अधिकांश भाग सदा के लिए खो देते हैं। उनके मन का
राज्य भीतर से सिभिटकर बाहर फैल जाता है। ऐसे व्यक्तियों की प्रवु्ति बहिमु ख्री
हो जाती है ।
भौतिकतावाद और मन की बहिमु ली प्रशत्तिः--यह बहिमुखी
प्रवुत्ति मन पर बाह्य जगत का आवरण डाल कर उसके शुद्ध अ्रहंभाव को कभी
तो इतना अ्रधिक आच्छादित कर देती है कि उसकी श्रनुभूति दुर्लभ हो जाती
है| ऐसे व्यक्ति सम्पूरशतः जगत के हो जाते हैं, उनका श्रपनापन कुछ भी
नहीं रहता है। इस अ्रपनेपन का विनाश यदि सम्पूर्णतः हो ही जाता तो भी
जगद्धिताय ही होता, परन्तु ऐसा होता नहीं है | आत्मारूप पांड के राज्य को
मन सूप श्रन्धा धृतराष्ट्र इस प्रकोर छीन लेता है कि धर्मराज (सत्य) और श्रजु न
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Ranjana Dixit
at 2020-09-09 15:30:23