श्री अरविन्द के पत्र भाग - 4 खंड - 18 | Shri Arvindke Patra Bhag - 4 Khand - 18

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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10 । श्रीअरविन्दके पत्र प्राणिक मांगके दवावके अधीन की जाती हो अथवा अंदतः या पूर्णतः किसी आध्यात्मिक या अन्य प्रकारकी महत्त्वाकांक्षा, किसी गर्व, मिथ्याभिमानको तृप्त करनेके लिये, शक्ति, पद-प्रतिप्ठा और दूसरोंपर प्रभाव प्राप्त करनेकी इच्छासे की जाती हो, अथवा यौगिक शक्तिकी सहायतासे किसी प्राणिक कामना- को तृप्त करनेकी किसी प्रवृत्तिके साथ की जाती हो तो चैत्य पुरुष उद्घाठित नही हो सकता, अथवा केवल अशतः ही उद्घाटित होगा अथवा केवल कभी- कभी होगा भौर फिर बन्द हो जायगा क्योकि चह प्राणिक क्रियाओंके द्वारा आच्छादित होगा; दम घोटनेवाले प्राणिक धमे चैत्य अग्नि धीमी पड़ जाती है। फिर, मन यदि योग-साधनामे नेतृत्वका कार्य करने लगे ओौर अन्तरस्थ अन्तरात्माको पीछेकी ओर ठेल दे, अथवा, यदि भक्ति या साघनाकी अन्य गतियां चैत्य आकारके वदले अधिक प्राणिक आकार ले लें तो फिर वही असमर्थता आ उपस्थित होती है। पवित्रता, सरल सच्चाई तथा चिना किसी बहाने था मांगके अहंकारशून्य अविभिश्र आत्मदान करनेकी क्षमताका होना ही बस चैत्य पुरूषके पूर्ण उद्घाटनकी शर्त्त है। मैः अवश्य ही चैत्यके प्रकट होनेमे अहं मौर प्राण अपने दावों ओर कामना. के साथ सदैव मुख्य वाधारूप होते है । क्योकि उनके कारण व्यक्ति अपने लिये ही जीता है, कर्म करता है यहां तक कि साधना भी अपने लिये ही करता है और चैत्यीकरणका अर्थ है भगवानूके लिये जीना, कर्म करना ओर साधना करना । नैः यदि कामनाका परित्याग कर दिया जाय ओौर उसका विचार, वेदन या कर्मपर अधिकार न रहै एवं पूर्णतया सच्चे आत्मदानकी अभीप्सा स्थिर रहे तो चैत्य सामान्यत्तया कुछ समयके वाद आप ही अप्र सुल जाता है। সক चैत्यकों आगे लानेके लिये स्वार्थ एवं मांगसे ' (जो प्राणिक वेदनोंका आधार है) छुटकारा प्राप्त करना होगा --- कमसे कम उन्हें स्वीकार तो कदापि




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