श्री भागवत -दर्शन | Shri Bhagwat Darshan

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Book Image : श्री  भागवत -दर्शन  - Shri Bhagwat Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्रवजी का त्तफ्स्यां के निमित्त वदरिकाश्रम गमन ( २४६ ) आत्मस्ूपपत्यसुहदों बलमद्धकोश- मन्तःपुरं॑ परिविहारशुवश्व रम्या। | भूमण्डलं जलधिमेखलामाकलग्य कालोपसृष्टमिति स प्रययो विशालामू ॥# छप्पय झाये निज पुर करे यज्ञ बहु वैभव वारे) पुष्य भोगतें पाप यज्ञ तप 5 सब जारे॥ सुत, दारा, धन, घान्‍्य जानि नश्वर सब त्याग । राज पुत्रकू सौँपि सतत तपमे ई लागे॥ करे सुकृत सव सुख लहै, फिरि ध्रुव वनवासी भये । तजि सबरे गृह भोग मुख, बदरी वन क्त चरि दये ॥ ससारी भोग यदि सुख बुद्धि से भ्रासक्त होकर भोगे जायं सोवे बन्धन कै हेतु है उनसे ससार का श्रावागमन 'भ्रौर % सैष मुनि षते है-- “विदुर जी ! छुवेजी भपने शरीर स्त्री, पुथ, भित्र, सेना, सम्पत्ति सम्पन्न कोख, श्रन्य पुर्‌, रमणीय विहारभूमि + तथा समुद्र दी है मेला जिसकी ऐसी पृथिवी के राज्य श्रादि सभी को फालकवलित सम कर या करने ददरीदन को चते गये |” ~+




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