समकित सावन | Samkit Savan

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Samkit Savan  by राजकुमार शास्त्री - Rajkumar Shastriविनोद शास्त्री - Vinod Shastri

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विनोद शास्त्री - Vinod Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अंजन से निरकजन ! {७ अनगसुन्दरी के प्रंमपाश मे बधा हुआ वह अंजनचोर अपनी प्रमिका की इच्छा पूर्ण करने के लिये अपने जीवन की परवाह ले करके उस जघन्य कार्य के लिये चल दिया । कृष्णपक्ष की चतुदंशी की घनघोर काली निशा में वह चारों ओर सुनसान देखकर पहरेदारों की आखो में धूल झोककर महल में जाकर थुस गया और रानी का चमकता हुआ अत्यत कीमती रत्न- हार चुराकर वहा से भागा । रानी ने जागकर देखा तो अवाक्‌ रह गयी । तत्काल चारो ओर सिपाही दौड पडे नगर में कोलाहल मच गया । अजन तो अदृश्य हो गया पर वह हार अदृश्य न हो सका अत; उसका प्रकाश्ष न छिप सका । सिपाही उस हार के प्रकाञ्च को देख- कर उसके पीछे दोड़ पड़ पकडे जाने के भय से उसने हार को रास्ते में ही फेंक दिया । सिपाही हार को पाकर बापिस लौट गये । पसीने ये चरुर कापता हुआ बेहतासा होकर अजन चोर भागता- भागता वही श्मशान भूमि मे जा पहुचा जहा सोमदत्त विद्यासाधन कर रहा था। वह एक वक्ष की ओट मे जाकर छिप गया और भयभीत चित्त से बहत देर तक वह उस घटना को आश्चर्य चकित होकर दखता रहा । (४) यद्यपि कायं मे निमित्त कृ कर्ता नही है परन्तु जब कायं होने का काल पकता है तो अनृग्ल निमित्त स्वयमेव লিন্দ জার ই) निमित्त की उपस्थिति मावका््रं मे अनिवायं है, वास्तविकं काये तो वस्तु के स्वय के उपादान की सामर्थ्य से ही होता है 1”




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