पच्चामृत | Pachchamrat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) जब सुमे मिली तो श्रद्धेय सगल जीके हार्थो मं उसे प्रकाशनाथं दे डाला | यह बात सन्‌ १६४७ १० की है । तात्पय यह कि धपञ्चामरतः के प्रकाशन मे विलम्ब दूश्रा है। लेकिन भान-बूक कर विलम्ब कहीं भी नहीं हुआ है । आख़िर सहगल जी भौ करते ही क्या? उनके संघषमय जीवन को कौन नहीं जानता ? जिस प्रकार का व्यस्त जीवन उन्होंने व्यतीत किया है ओर जगत के लिए जीया है उस प्रकार के जीवन में शायद श्रन्य लोग घेंट-घंट कर मर जाएँ । मुझे खेद के साथ लिखना पड़ता है कि 'पश्चामृत' के लिये समय का लम्बा त्याग करने पर भी सहगल जी का उस पर पूरा सहयोग नहीं मिल सका । आज वह पूणत: अस्वस्थ हैं ओर कई माह से अ्रस्पताल में पढ़े शय्या-ग्रस्त हैं । जबकि ये पंक्तियाँ [लखी जा रही हैं उस समय तक के प्माचार से कहना कठिन है कि कब तक वह हमारे बीच रहेंगे | में तो भव-भय-हारी भगवान्‌ से बारम्बार प्राथना करता हूँ कि वह उनके स्वास्थ्य मं पुनः सुधार करद्‌ । श्रस्तु। डॉक्टर अमरनाथ का ने पञ्चामृतः की भूमिका लिख कर इसके मूल्य में मामूली ब्ृद्धि नहीं की है।इस असीम अनुकम्पा का मूल्य में शब्दों में क्यों आक दे:ओर कैसे आओँक द्‌ ! प्रकाशन के विलम्ब की पूति करने के लिए भाई नरेन्द्र ने इधर जो शीघ्रता दिखाई है उसके लिए धन्यवाद देना वातुलता-माच्र हे । सच कहू यो यदि भाई नरेन्द्र ने 'पशञ्मामृत' के प्रकाशन मं दिलचरपी न ली होती तो पाठकों को अभी श्रोर प्रतीक्षा करनी पड़ती ।




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