ऋग्वेद - संहिता | Rigved - Sanhita

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Rigved - Sanhita by पं. रामगोविन्द त्रिवेदी - Pt. Ramgovind Trivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्‌ खरीक आम्वेद-संहिता [ হ আঞ্। হ সঞ্। € আঞ্যাণ্। १ अनुर श्रा सीमरोहत्‌ सुयमा भवन्तीः पतिशिकितवात्रयिविद्रयीणाम्‌ । मर नीलष्ष्टो ्रतसस्य धासेस्ता श्रवासयत्‌ पुरुधप्रतीकः ॥ ३ ॥ महि त्वाष्टूसुजयन्तीरजुर्य स्तभूयमानं बहतो वशन्ति । व्यङ्गेभिर्दिदयुतानः सधस्थ एकामिव रोदसी श्रा विवेश ॥ ४ जानन्ति वृष्णो श्ररषस्य शेवमुत बध्रस्य शासने रणन्ति । दिवोरुचः सुरुचो रोचमाना इडा येषां गग्या माहिना गीः ॥५॥ उतो पितृभ्यां पविदानुघोषं महो महदूभ्यामनयन्त शूषम्‌ । उक्ता ह यल परिधानमक्तोरनुसवं धाम जरितुवयत्त ॥ £ ॥ श्रष्वयभिः पथिः सप्तविप्राः भियं रक्तन्ते निहितं पदं वैः । पायो मदन्त्युच्तणो श्रजरयां देवा देवानामनु हि व्रता गुः ५५७ ३ धनो श्रेष्ठ धनके स्थामी, शानधान ओर अधिपाति अग्नि सझमसे संयमनीय वड्वा्ोमे ঘন गये। श्वेत पृष्ठचाले ओर चारो झोर प्रसृत अग्निनि बड़वाआझंको, सनत गमन कर्नेके लिये होड़ दिया । ४ बलकारिणी ओर प्रवहमाना नदियाँ श्यग्निको धारगा करती हैं | वह महान, त्वष्टाकं पुत्र, जरारहित ओर सारे संसारकों धारण करनेके धमभिलाषी हैं। जैसे पुरुष एक स्त्रीदं, पास जाता है, जिसे ही अग्नि जलके पास प्रदीत्त होकर द्याधापृथियीमें घेश करते है । ५ ज्ञोग श्ममीष्टवषीं श्ोर श्रहिंसक अग्निके श्राश्रय-जन्य सुखको जानते ओऔर महान्‌ छग्निकी आशासें रत रहते हैं। जिन मलुष्योंके श्रेष्ठ-स्तुति-रूप धाक्य गगानीय होते हैं, वे द्यूलोकके दीसिकर्ता कोर शोभन वीघछि-युक्त होकर देदीप्यमान होते हैं। है महानसे भी महाद्‌ पितृ-मातृ-स्थानीय द्यावापृथिवीके शानके पश्चात्‌ ऊँचे स्वग्मं की गयी झतुंतिसे उत्पन्न सुख भम्निके निकट जाता है। जलसेचनकर्ता अग्नि राजिकी चारो आर व्याप्त स्वकीय तेज स्सोताके पास भजते हैं । ७ पाँच थश्वयुर्नोके साथ सात होता गमनशील अग्निके प्रिय स्थानकी पत्ता करते ह । सोम पानके लिये पूर्वकी प्मोर अनिधाल्त ध्रजर श्यौर सम-रसचरषीं स्तोता लग प्रसन्न हाते टै, क्योकि देवता- लोग देथ-तु्य स्तोताध्मोंके यहमें जाते है ।




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