पिपासा | Pipasa

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Pipasa by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पिपासा १३९ इमारी दृष्टि ही नहीं है। दूसरों को घोखा देकर, उन्हें ठगकर, महत्व और शक्ति का संचय करने की यह आँघी हमारी श्रंवद ष्टि को कितना पुषला . बना रही है, इसकी ओर दम्नारा ध्यान ही नहीं जाता | हाय 1 हमारे जीवन की यह कैसी अधोगति है ! 7 नरेंद्र मंसिफ्न है। उसे रोज़ाना दीवानी मुकृबमें फ़ेसला करने पड़ते हैं । बह कोर्ट में ठोक दस बजे पहुँच नाता है, सादे दघ बजे बादी ओर प्रति बादी उसके सामने आ जाते हैं। बीच में टिफ़न की छुट्टी लेने का वह आदी नहीं। चार-पाँच.बजे तक वह खघ ककर मेहनत करता है। वह प्रतिदिन केम-से-कम वीछ-बाइस मुकदमे फ़रॉेसला कर देता है। इस लिए उसका एक-एक मिनट बैंटा रहता है। दस मिनट में ही दो-चार भश्नोत्तर करके वह्‌ छभियोग की বলত বক पहुँच जाता है। लोग उतके न्याय पर संदेह करते हैं। लोग उसकी प्रशसा भो करते हैं; और लोगों की उसकी तत्कालीन निर्ण॑य-बरुद्धे पर आश्चव भी होता है; परन्त नरेन्द्र किस घाठु का जना है, इसका पता बहुत कम लोगों को है । नरेन्द्र के हाथ में इस सतय एक मुकुंदमे की मिसिल है। उसके एक- एक कागज को वह बहुत ध्यान से देख -रहा है| लेकिन आज किसी निर्णय पर पहुँचते हुए उतकी आत्मा एक सेंशप में पढ़ जाती है । : इसी समय शकूंतला उसके निकट श्रा पहुँची । उत्ते देखते दी नरेंद्र রা : उसके शशि-म्रुत्त पर एक इृष्टि डालकर कहने लगा--विल्कुल ठीक समय पर तुम মাই. হত) হত समय तुम्हारी ही कमी थी । शायद, तुम्र मेरी , समस्या को ठीक तरह से इल कुर सको | मैं तो किछी निर्णय पर पहुँच 'नहों पाता । : “बात क्या है, पहले यह तो वताश्रो | जुरा वोच-षमम्‌ लु, श्रपना मे्नतानातै करल, तोरषिरश्चागे बद्‌” कहते हए शकं ल। के कमल ` .षद्न की सस्मित श्राभा उदीप दो उदी [उसने उसके नयन-कढोरों _में--भरी.... वारुणी नरेन्द्र के श्रेतस्तल तक पहुँचकर उसे ककोरने लगी.]>




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