निर्वाण उपनिषद | Nirvan Upnishad

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Nirvan Upnishad  by भगवान रजनीश -BHAWAN RAJNEESH

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आचार्य श्री रजनीश ( ओशो ) - Acharya Shri Rajneesh (OSHO)

ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कभी कुछ समझ में नहीं आता, करने से ही कुछ समझ में आता है। करेंगे तभी समझ पाएंगे। इस जीवन में जो भी महत्त्वपूर्ण है, उत्का स्वाद चाहिए, अथथ नही । उसकी व्याख्या नही, उसकी प्रतीति चाहिए। आग क्‍या है, इतने से काफी नहीं होगा, आग जलानी पड़ेगी। उस आग से गुजरना पडेगा । उस आय में जलना पड़ेगा और बुझना पड़ेगा । तब प्रतीति होगी कि निर्वाण क्या है। और यह कठिन नहीं है । अहंकार को बनाना कठिन है, भिटाना कठिन नहीं है। क्योकि अहंकार वस्तुतः है नही, सरलता से मिट सकता है। असल में जिन्दगी भर बड़ी मेहनत करके हमें उते संभालना पडता है। सब तरफ से टेक और सहारे लगाकर उसे बनाना पड़ता है। उप्ते गिराना तो जरा भी कठिन नहीं । इन सात दिनों में अगर आपका अहंकार क्षण भर को भी गिर गया, तो आपको इसकी प्रतीति हो सकेगी किं निर्वाण क्‍या है। हम समरक्षेगे सिफं इसीलिए कि कर सकं! मैं जो भी कहुँगा उसे आप अपनी जानकारी नही बना लेंगे, उसे आप अपनी प्रतीति बनाने की कोशिश करेगे । जो मैं कहूँगा, उसे अनुभव में लाने की चेष्टा करेंगे । तभी इस अवसर का सदृपयोग होगा । अन्यथा पाँच हजार सालों मे उपनिपद्‌ की बहुत टीकाएं हुई , पर परिणाम तो कुछ भी हाथ नहीं आया । शब्द, ओर शब्द, और शब्द का ढेर लग जाता है। आाखी<र में बहुत शब्द आपके पास होते हैं, ज्ञान बिलकुल नही होता । जिस दिन ज्ञन होता है, उस दिनि अचानक आप पाते हैं कि भोतर सब नि:शब्द हो गया, मोन हो गया। यह प्रार्थनाहै ऋ्रषि की । ऋषि ने इसे कहा है, शाति पाठ । परमात्मा से प्राथंना करनी हो तो कुछ और कहना चाहिए । परमात्मा के लिए शाति के पाठ का क्‍या बर्थ हो सकता है? परमात्मा शान्त है। लेकिन इसे कहा है, शाति पाठ । जानकर कट्दा है, बहुत सोच-समझकर कहा है। उलटे यह कहा है कि प्रार्थना तो करते हैं परमात्मा से, लेकिन करते हैं अपने ही लिए। हम अशान्त हैं और अशात रहते हुए यात्रा नहीं हो सकती । अश्ञान्त रहते हुए हम जहाँ भी जाएंगे वह परमात्मा से विपरीत होगा । अशान्ति का दर्य हैं, परसात्सा की तरफ पीठ करके चलना । असल में जितना अशान्त मन, परमात्मा से उतनी ही दूर | बज्ञाति ही १३




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