पंचाध्याया प्रवचन | Panchadhyaya Pravachan

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Panchadhyaya Pravachan by नरेन्द्र कुमार जैन - Narendra Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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षष्ठ भाग [ ११ यौ नय श्रनगिनते होसकते ह, किन्तु.उन सभी नयोको समानता भ्नौर.सश्रहसे सकोचा जाय तो नय दो प्रकारके होते है। जब विषयभेद है तो विकल्पभेद भी है । जब विकल्पसेद है तो नयभेद मी बना | इस तरहसे' नय दो श्रकारोमे विभक्त हो जाता हैं, जब नय श्रपने प्रतिपक्षनयकी भ्रपेक्षा रख़ता है तो इतना तो सामान्यरूपसे. ही जान लिया जाता है कि नय दो प्रकारके विषयोको ग्रहण करता है। एक अपने अनुकुल श्रा उन्‍्का जो प्रतिपक्षों नय है वह उध्ष विषयसे प्रथकको विषय करता है यो विषय सेदकी दुशिरताके कारण उनको समझाने वाले जो वाक्य है जे, भी दो प्रकाश फे वनते है जिन्हे सामान्य ग्राहक झौर विशेष ग्र'हक या द्व्याधिक या पर्यायाथिक या भेदरूप व प्रभेदरूप किन्‍्ही भी छब्दोसे कहो यो दो प्रकारके नय हो जाते है । | > ` एको द्रव्यार्थिक इति पर्यायाथिक इति द्वितीयः स्यात्‌ । ,, सर्वेपां च नयानां मृललमिद्‌ नयदवर्यं यावत्‌ ॥५१७॥ , नयकर मूलभेदकप द्रव्याथिक व पर्यायाथिक नयक्ता चिर्देश - त्य दो प्रकारके हैं एक द्रव्याधिकनय और दूसरा पर्यायाथिकनय । ग्रद्युपि-नय भ्नगिनते हो सकते हैं, क्योकि विपयोके प्रकार, विषयौमे उपविषय अनेक होते हुए विषय अनेक बन जाते है। यो नय श्रनेक प्रकारके है किन्तु कितने भी क्षय हो, सस्पुर्णा नयोके मूल- भूत विपम ये दो ही पाये जाते हैं। या तो वह वय भेदकी प्रधानतासे सम रहा होगा अथवा श्र्नेदकी प्रधानतासे समझ रहा होगा । तो जितने भी चिषय है या तो भेदमें गर्भित होगे या भ्रभेदमे गर्भित होगे। तो यो भेदको सुमभिये पर्याय और श्रभेद को समझिये द्रव्य । । तो सभी नयोके मूलभूत वे दो ही' प्रकार है दव्याथिकनय श्रीर पर्यायाथिकनय । कही सक्षेप झौर विस्तार ये दो विषय बन जाते है। तो वबहाँपर भी जो क्षेप है वह्‌ अभेद भ्रथवा द्रव्याथिकतयमे धामिल है श्ौर,जो विस्तार है वह भेद झथवा पर्यायाथिक्रनयमे गरभमित होता है । विषयोक्री पद्धति मूलमे दो ही द्वोनेके कारण नयोकरे, भेद मुलमे दो ही होते हैं, जिनका इस मायामे वर्णन किया गया है। चूंकि द्रव्याथिकनय एक मूल वस्तुकों जनाता है श्रौर द्रव्याथिकनयके विपयका श्राश्रय करने से शान्तिका मार्ग प्राप्त होता है मोक्षमार्गम इस ही भ्भेदनयके भ्रवलम्बनकी प्रशसा की गुई है, झतः प्रथम तम्वरमे द्रव्याथिकनयको गिनाया है भौर द्वितीय कममे पर्याया- थिकत॒यको रखा है। यद्यपि व्यवहार प्रथवा पर्यायाथिकनय॒की हपासे द्रव्याथिकनयका द्रव्याथिकनयके विषयुका भ्ौर परमार्थ ततत्वका वोधे होता है भरत. प्रारम्भमे इपक्रारी है, पर श्रन्तमे श्रभेदका ही आश्रय योगीजन करते हँ जिसके वाद यह्‌ अभेदका भाश्च भी दुटता है श्र निविकल्प स्थिति बनती है | अत. यहाँ प्रव्यार्धिकतयको प्रथम श्रौर पर्षायाथिकनयकों द्वितीय कहा गया है ५;




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